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श्रावकाचार-संग्रह
उल्लेखनीय विशेषताओंमें से एक है सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत देवपूजाका विस्तृत वर्णन । उसीमें सर्वप्रथम पूजनके दो प्रकार मिलते हैं-अतदाकार और तदाकार । अतदाकार पूजनके अन्तर्गत भक्तियां वर्णित हैं-दर्शन ज्ञान चारित्र भक्ति, अर्हत् सिद्ध आचार्य और चैत्य भक्ति आदि। किन्तु तदाकार पूजनके अन्तर्गत वह सब वर्णित है जिसपरसे आजकी पूजा पद्धति प्रचलित हुई है। इसमें ही सर्वप्रथम विविध फलोंके रसोंसे जिन 'प्रतिमाके अभिषेकका विधान है तथा ध्यानका वर्णन भी सर्वप्रथम इसी श्रावकाचारमें मिलता है। अन्य भी अनेक विशेषताएं हैं।
४. अमिततिका श्रावकाचार उक्त सब श्रावकाचारोंसे बृहत्काय है। उसमें पन्द्रह परिच्छेद हैं। उसको रचना यशस्तिलकचम्पूके अन्तर्गत श्रावकाचारसे कुछ ही वर्षोके पश्चान् हुई है । दोनों ही श्रावकाचार विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीमें रचे गये हैं। एक उसके पूर्वार्धकी रचना है तो दूसरी उत्तरार्ध को।
प्रारम्भके चार परिच्छेदोंमें अमितगतिने मिथ्यात्वकी बुराईके साथ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कथन विस्तारसे किया है जो प्रायः करणानुयोगके ग्रन्थों में मिलता है। दूसरा परिच्छेद इसीसे पर्ण हुआ है। उसे पढ़कर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और उसके भेदोंकी जानकारी भलीभाँति हो जाती है। तीसरे परिच्छेदमें सम्यक्त्वके विषयभूत जीवादि सात तत्त्वोंका विवेचन है। इसमें जीवके भेद, योनि, आदिके कथनपूर्वक चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थानोंके भी नामोंका उल्लेख है। अजीवादितत्त्वोंके वर्णनमें तत्त्वार्थसूत्रके अध्याय ५, ६, ७, ८, ९का सार दे दिया है। चतुर्थपरिच्छेदमें चार्वाकका खण्डन करते हुए आत्मा तथा सर्वज्ञताकी सिद्धि तथा ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन किया गया है। इस प्रकार इस श्रावकाचारके आरम्भके चार परिच्छेदोंमें करणानुयोग द्रव्यानुयोग और न्यायशास्त्रसे सम्बद्ध आवश्यक विषयोंकी चर्चा करनेके पश्चात् पाँचवें परिच्छेदसे श्रावकाचारका कथन प्रारम्भ होता है। इसके सातवें परिच्छेदमें व्रतोंके अतीचारोंका वर्णन करनेके पश्चात् तीन शल्योंका वर्णन करते हुए निदान नामक शल्यके दो भेद किये हैं- प्रशस्त
और अप्रशस्त । तथा प्रशस्त निदानके भी दो भेद कहे हैं-एक मुक्तिका निमित्त और एक संसारका निमित्त । जो कषायरहित पुरुषकर्मोंका विनाश, सांसारिक दुःखोंकी हानि, बोधि, समाधि आदिको चाहता है उसका निदान मुक्तिका कारण है, और जिनधर्मकी सिद्धिके लिए उत्तमजाति, उत्तमकुल, बन्धुबान्धवोंसे रहितता और दरिद्रताको भी चाहनेवाले पुरुषका निदान संसारका कारण है। यह सब विशेष कथन पूर्वके श्रावकाचारोंमें नहीं है ।
अष्टम परिच्छेदमें छह आवश्यकोंका वर्णन है। ये छह आवश्यक वही हैं जो मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुणोंमें गभित हैं। वे हैं-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। प्राचीनकालमें श्रावकके लिए भी यही षडावश्यक थे। इन्हींके स्थानमें उत्तरकालमें देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान ये षडावश्यक निर्धारित किये गये। आजका श्रावक तो प्राचीन षडावश्यकोंके नामोंको भी भूल गया है। इन षडावश्यकोंक पश्चात् नवम अध्यायमें दान, शील उपवास और पूजाका कथन है जो वर्तमानमें प्रचलित हैं। दसवें आदि अध्यायोंमें पात्र और दानके प्रकारोंका विस्तारसे वर्णन है।
बारहवें अध्यायमें जिनपूजाका वर्णन है। उसके दो भेद हैं-द्रव्यपूजा और भावपूजा। वचन और शरीरको जिंनभक्ति में लगाना द्रव्यपूजा है और मनको लगाना भावपूजा है। अथवा
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