Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ प्रधान सम्पादकीय ही संसार के कारण होनेसे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । अतः निश्चयसे पुण्य और पापमें कोई भेद नहीं है । अतः पुण्यबन्धको परम्परासे मोक्षका कारण अमृतचन्द्रजीने नहीं कहा। प्राकृत भावसंग्रहमें देवसेनाचार्य ने सम्यग्दृष्टिके निदानरहित पुण्यको परम्परासे मोक्षका कारण अवश्य कहा है सम्मादिट्ठीपुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेउ जइवि निदाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टका पुण्य नियमसे संसारका कारण नहीं होता, मोक्षका कारण होता है यदि वह निदान नहीं करता । इससे पूर्वमें उन्होंने जो कहा है वह प्रत्येक श्रावक के लिए ध्यान देने योग्य है । उन्होंने कहा है जब तक मनुष्य घरका त्याग नहीं करता तब तक पापोंका परिहार नहीं कर सकता । और जब तक पापोंका परिहार नहीं होता तब तक पुण्यके कारणोंको नहीं छोड़ना चाहिए । क्योंकि पुण्यके कारणों को छोड़कर पापके कारणोंका परिहार न करनेवाला पापसे बन्धता रहता है और फिर मरकर दुर्गतिको जाता है। हाँ, वह पुरुष पुण्यके कारणोंको छोड़ सकता है जिसने अपना चित्त विषय कषायोंमें प्रवृत्त होनेसे रोक लिया है और प्रमादको नष्ट कर दिया है । जो पुरुष गृह- व्यापारसे विरत है, जिसने जिन लिंग धारण कर लिया है और जो प्रमादसे रहित है उस पुरुषको सदा पुण्यके कारणोंसे दूर रहना चाहिए || ३९३ - ३९६ ॥ इस तरह पुण्य न सर्वा है और न सर्वथा उपादेय है । किन्तु सम्यग्दृष्टी पुण्यबन्धका अनुरागी नहीं होता, वह उसे संसारका कारण होनेसे हे ही मानता है । इस सम्बन्धमें कार्तिकेयानुप्रेक्षाके अन्तर्गत धर्मानुप्रेक्षामें जो कथन किया है वह भी उल्लेखनीय है । उसमें कहा है 'जो पुरुष पुण्यको चाहता है वह संसारको ही चाहता है; क्योंकि पुण्य सुगतिके बन्धका कारण है और मोक्ष पुण्य के क्षयसे मिलता है । जो कषायसहित होकर विषयसुखकी तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है, उसके विशुद्धि दूर है और पुण्यबन्धका कारण विशुद्धि है । पुण्यकी चाह पुण्यबन्ध नहीं होता और जो पुण्यकी इच्छा नहीं रखता, उसके पुण्यबन्ध होता है। ऐसा जानकर हे यतीश्वरों ! पुण्य में भी आदर मत करो । मन्द कषायवाला जीव पुण्यबन्ध करता है । अतः पुण्यबन्धका कारण मन्दकषाय है, पुण्यकी चाह नहीं है ||४०९-४१२॥ इस प्रकार विविध ग्रन्थोंमें एक ही विषयको लेकर जो विवेचन मिलता है वह सब ज्ञातव्य है और यही उन ग्रन्थोंकी विशेषता है । ३. यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें जो श्रावकाचार है उसमें अपनेसे पूर्वके श्रावकाचारोंसे अनेक विशेषताएँ हैं । प्रारम्भ में ही सम्यक्त्वके वर्णनमें लोक-प्रचलित मूढताओंका निषेध करते हुए गायकी पूजा, ग्रहणमें दान, आदिका खुलकर निषेध किया गया है । आठो अंगों में प्रसिद्ध पुरुषोंकी कथाएँ दी हैं । पाँच अणुव्रत और मद्यत्याग आदि करनेवालों की भी कथाएँ हैं । अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 574