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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, संपादकीय
संपादकीय
धर्म दिव्य पाथेय हैं :
धर्म सदा सर्वदा अविनश्वर होने से दिव्य पाथेय हैं
। जो हंमेशा खाद्य, अत्यंत पवित्र, समस्त प्रकार के दोष से रहित, अक्षय, अमूल्य, अपूर्व दिव्य पाथेय हैं । जो मृत्यु के बाद भी साथ रहता है और मोक्ष तक अवश्य पहुँचाता हैं ।
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धर्म विशुद्ध बुद्धि से जानना और जीवन में उसकी निर्मलभाव से आराधना करना आवश्यक है । इसलिए धर्म के रहस्य सूक्ष्मबुद्धि से समजना आवश्यक है । अनेकांतदृष्टि से सूक्ष्मबुद्धि का विकास होता है और अनेकांतदृष्टि प्राप्त करने के लिए श्री जिनागमों और पूर्व महर्षियों के द्वारा विरचित प्रकरण ग्रंथो (शास्त्रो) का आत्मलक्षी अभ्यास, चिंतन, मनन, निदिध्यासन करके धर्म, आत्मा, बंधन, मुक्ति, विश्व आदि पदार्थो का यथार्थ निर्णय करना अति आवश्यक है । यथार्थ निर्णय के बिना भ्रान्तियों का उन्मूलन नहीं हो सकता और इसके बिना संस्कारो का परिवर्तन नहीं हो सकता । इसलिए ही कुसंस्कारो का उन्मूलन और सुसंस्कारो का सिंचन करने के लिए वस्तुस्थिति के यथार्थ निर्णयपूर्वक हेय की निवृत्ति और उपादेय की प्रवृत्ति करने का तारक श्री तीर्थंकरो ने हम सब को उपदेश दिया है। दर्शनबोध की आवश्यकता :
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श्री जिनागम और श्री जिनागम का अनुसरण करके रचे गये प्रकरण ग्रंथों में अनेक स्थान पे दार्शनिक चर्चायें आती है । किसी स्थान पे पूर्वपक्ष में अन्यदर्शन की मान्यताओं को उपस्थित की जाती है और उत्तरपक्ष में उसका खंडन करके स्वपक्ष का मंडन किया जाता हैं । दार्शनिक ग्रंथों में तो प्रत्येक पंक्तिपंक्ति पर तत् तत् दर्शनो की मान्यतायें और उसका खंडन अवतरित हुआ दिखाई देता है । प्रत्येक दर्शन
ग्रंथो में यह शैली दिखाई देती है । आचार ग्रंथो में तो स्वदर्शन को इष्ट आचार संहिता का निरुपण हुआ होता है । परन्तु द्रव्यानुयोग और दार्शनिक ग्रंथो में पूर्वोत्तर पक्षो की रचना करके खंडन-मंडन की शैली अपनाई हुई दिखाई देती है । १४४४ ग्रंथ के रचियता समर्थ शास्त्रकार शिरोमणी पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा द्वारा विरचित योग, न्याय, दर्शन आदि विविध विषयक ग्रंथो में तो प्राचीन न्याय की शैली में जगह-जगह पे दर्शनो की मान्यताओं की समीक्षा हुई दिखाई देती है । न्यायाचार्य न्यायविशारद पूज्यपाद महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा के विभिन्न विषयक ग्रंथो में नव्यन्याय की शैली में जगह-जगह पर दर्शनों की मान्यताओं की परीक्षा की गई हैं । अन्य पू. पूर्वाचार्यों की श्री नागमो आदि की टीकाओं में भी दार्शनिक चर्चाओं का न्याय की शैली में आविष्कार हुआ दिखाई देता हैं।
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ज्ञान रत्नत्रयी की साधना का महत्त्वपूर्ण अंग हैं । ज्ञान के बिना रत्नत्रयी की साधना निर्मल नहीं बन सकती हैं और सम्यग्ज्ञान ही रत्नत्रयी की साधना को निर्मल बना सकता हैं । इसलिए ज्ञान को सम्यग् -
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