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श्रावकप्रज्ञप्तिः
अनुस्मरण करना व उसमें उपयुक्त होना, चैत्यवन्दना व गुरु आदि की वन्दना करते हुए विधिपूर्वक प्रत्याख्यान को ग्रहण करना, तत्पश्चात् चैत्यालय में जाकर जिनपूजादि करना व ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को साधु के समक्ष ग्रहण करना आदि। प्रसंगवश यहाँ पूजा के विषय में उठनेवाली शंकाओं का समाधान करके उसे अवश्य करणीय सिद्ध किया गया है ( ३४३-३५०) । तत्पश्चात् यहाँ गुरु की साक्षी में प्रत्याख्यान के ग्रहण में क्या लाभ है, इसे प्रकट करते हुए श्रावक की दैनिक चर्या का तथा सोते से उठकर क्या विचार करना चाहिए, इसका वर्णन किया गया है ( ३५१-३६४) ।
अन्त में साधु व श्रावक की विहारविषयक सामाचारी (३६४-३७६), अन्य अनुपालन करने योग्य प्रतिमा आदि (३७६), मारणान्तिकी सल्लेखना की आराधना ( ३७७-३८५) और जिनोपदिष्ट क्षान्ति आदि गुणों की भावना; इत्यादि विशेष करणीय क्रियाओं का विवेचन (३८६ -४००) करके अन्त में ग्रन्थकार ने यह भी निर्देश कर दिया है कि मैंने सूत्र, सूत्रकार एवं आचार्यपरम्परा से प्राप्त तत्त्व का उद्धार मात्र किया है। यदि इसमें कदाचित् कुछ विरुद्ध हुआ हो तो परमागम के ज्ञाता क्षमा करें (४०१ ) ।
५. दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में श्रावकाचार विषयक समानता
जैसा कि पाठक पीछे विषयपरिचय व तुलनात्मक विवेचन में देख चुके हैं श्रावकाचार के विषय में दि. और श्वे. सम्प्रदायों में कोई विशेष मतभेद नहीं रहा, तद्विषयक समानता ही उनमें अधिक दिखती है ।
यथा
१. श्रावकधर्म का अनुष्ठान सम्यक्त्व के ऊपर निर्भर है, इसे दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से स्वीकार किया गया है। उस सम्यक्त्व विषयक विवेचन भी प्रायः दोनों सम्प्रदायों में समान रूप में उपलब्ध होता है ।
२. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों के स्वरूप आदि का विवेचन उक्त दोनों सम्प्रदायों में समान रूप में किया गया है । गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विषय में जो कुछ मतभेद रहा है वह उन दोनों सम्प्रदायों में से प्रत्येक में भी पाया जाता है। जैसे- दि. तत्त्वार्थसूत्र (७-२१) में जहाँ गुणव्रत और शिक्षाव्रत का भेद न करके सामान्य से दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत इनका उल्लेख शीलव्रतों (७-२४) के रूप में किया गया है, वहाँ रत्नकरण्डक में दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण इन तीन को गुणव्रत (६७) तथा देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्त्य ( अतिथिसंविभागव्रत ) इन चार को शिक्षाव्रत (९१) कहा गया है | चारित्रप्राभृत में शिक्षाव्रतों के मध्य में देशावकाशिकव्रत को ग्रहण न करके उसके स्थान में सल्लेखना को ग्रहण कर उन चार को शिक्षाव्रत कहा गया है (२६) । इस प्रकार चारित्रप्राभृत में सल्लेखना को बारह व्रतों के ही अन्तर्गत कर लिया गया है। यह रत्नकरण्डक की अपेक्षा यहाँ इतनी विशेषता है। दि. सम्प्रदाय के अनुसार श्वे. सम्प्रदायसम्मत तत्त्वार्थसूत्र (७-१६ व १९) में भी उक्त दिव्रतादि सात व्रतों का उल्लेख शीलव्रतों के रूप से ही किया गया है, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विभाग नहीं किया गया। उवासगदसाओ में (१-१२, पृ. ६ व १-५८, पृ. १२-१३ ) गुणव्रत का निर्देश न करके उक्त दिग्ग्रतादि सात का उल्लेख 'शिक्षापद' के नाम से किया गया है । परन्तु प्रस्तुत श्रा. प्र. (गा. ६ तथा गा. २८० व २९२ की उत्थानिका) आदि में दिव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग इन चार को शिक्षाव्रत कहा