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प्रस्तावना
जीवनपर्यन्त के लिए भी स्वीकार करता है (१०६-१०८)। प्रसंग पाकर यहाँ यह शंका की गयी है कि जब श्रावक के परिणाम स्वयं देशविरतरूप होते हैं तब गरु के समक्ष उस व्रत का ग्रहण करना निरर्थक एवं गरु व शिष्य दोनों के लिए दोषकारक है। इस शंका का युक्तिपूर्वक सुन्दर समाधान किया गया है (१०९-११३)।
तत्पश्चात् दूसरी शंका यह उठायी गयी है कि जो गुरु मन, वचन और काय तीनों प्रकार से प्राणिघात का परित्यागी होकर पूर्णतया महाव्रती होता है वह यदि श्रावक को स्थूलप्राणातिपात का ही परित्याग कराता है तो इससे उसकी सूक्ष्मप्राणातिपात में अनुमति समझनी चाहिए और तब इस प्रकार से उसका अहिंसामहाव्रत कैसे सुरक्षित रह सकता है। इस शंका का समाधान यहाँ सूत्रकृतांग का अनुसरण करके एक सेठ के छह पुत्रों का दृष्टान्त देकर किया गया है (११४-११८)। इसी प्रकार की और भी अनेकों शंकाओं को उपस्थित करके उनका युक्ति और आगम के आश्रय से समाधान करते हुए प्रस्तुत स्थूलप्राणातिपातविरमण अणुव्रत का विशदतापूर्वक विस्तार के साथ विवेचन किया गया है (११९-२५६)। तत्पश्चात् उसका निर्दोष परिपालन कराने के उद्देश्य से उसके पाँच अतिचारों का निर्देश करके उनके परित्याग के साथ त्रसरक्षण के लिए अन्यान्य प्रयत्न करने की ओर भी सावधान किया गया है (२५७-२५९)।
इस प्रकार प्रथम अणुव्रत का विस्तार से निरूपण करके तत्पश्चात् यथाक्रम से स्थूलमृषावादविरति, स्थूलअदत्तादानविरति, परदारपरित्याग व स्वदारसन्तोष और सचित्ताचित्त वस्तुविषयक इच्छापरिमाण इन शेष चार अणुव्रतों का (२६०-२७९); दिग्व्रत, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डविरति रूप तीन गुणव्रतों का (२८०-२९१); तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधव्रत और अन्नादिदान (अतिथिसंविभाग) इन चार शिक्षापदों का (२९२-३२७) अतिचारों के उल्लेखपूर्वक वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में संस्कत टीकाकार ने कहीं पर्वोक्ताचार्यविधि. कहीं वृद्धसम्प्रदाय और कहीं सामाचारी आदि का निर्देश करके आगमिक परम्परा के अनुसार यथास्थान इन व्रतों व उनके अतिचारों का प्रायः विस्तार के साथ स्पष्टीकरण किया है। सामायिक के प्रकरण में यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि सामायिक को स्वीकार करनेवाला गृहस्थ जब कुछ समय के लिए समस्त सावध योग का परित्याग कर देता है तब उसे साधु ही समझना चाहिए। इसके उत्तर में उस समय उसके इसकी असम्भावना प्रकट करके साधु और श्रावक के मध्य में दो प्रकार की शिक्षा, 'सामाइयंमि उ कए' इत्यादि गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिपत्ति और अतिक्रम; इन द्वारों के द्वारा भेद बतलाया गया है (२९३-३११)। इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म में पाँच अणुव्रतों व तीन गुणव्रतों को यावत्कथिक-एक बार स्वीकार करके जीवनपर्यन्त परिपालनीय और चार शिक्षापदों को इत्वर-अल्पकालिक-निर्दिष्ट किया गया है (३२८)।
गृहस्थ जो प्रत्याख्यान करता है उसके मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना इनके पारस्परिक संयोग से समस्त भंग १४७ होते हैं। यहाँ यह आशंका उठायी गयी है कि गृहस्थ चूँकि देशव्रती है अतः उसके जब अनुमति का निषेध सम्भव नहीं है तब प्रकृत प्रत्याख्यान के वे १४७ भंग कैसे हो सकते हैं। इस शंका का भगवतीसूत्र के अनुसार समाधान करने पर जो प्रत्याख्यान नियुक्ति के आश्रय से दूसरी शंका उपस्थित हुई उसका तथा इसी प्रकार की अन्य शंकाओं का भी समुचित समाधान किया गया है (३२९-३३८)। ___ श्रावक को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर साधुओं का आगमन होता रहता हो, चैत्यालय हों और अन्य साधर्मिक बन्धुजन भी रहते हों (३३९-३४२)। वहाँ रहते हुए उसे विधिपूर्वक ही रहना चाहिए। यथा-प्रातःकाल में उठने के साथ नमस्कार मन्त्र का उच्चारण करते हुए शय्या को छोड़ना, व्रतादि का