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श्रावकप्रज्ञप्तिः
हीन हो जाती है इस बीच अभिन्नपूर्व ग्रन्थि होती है।
दूसरा अपूर्वकरण परिणाम स्थितिघात व अनुभागघात आदि रूप अपूर्व कार्य को-जो पूर्व में कभी नहीं हुआ था-किया करता है। वह चूँकि अनादि काल से अब तक जीव को कभी पूर्व में नहीं प्राप्त हुआ था, इसीलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया है। इस अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा पूर्वोक्त कर्मग्रन्थि का भेदन होता है। जिसकी निवृत्ति सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने तक नहीं होती है उसका नाम अनिवृत्तिकरण है। यह तीसरा करण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अभिमुख हुए जीव के ही होता है। ये तीनों ही आत्मपरिणाम उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्धि को प्राप्त होते गये हैं। इनमें से अभव्य जीवों के केवल एक यथाप्रवृत्तकरण ही हुआ करता है, शेष दो करण उनके सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार अपूर्वकरण के द्वारा उस कर्मग्रन्थि के
हो जाने पर प्राणी को मोक्ष के हेतुभूत उस सम्यग्दर्शन का लाभ होता है और तब वह उत्कृष्ट स्थितियुक्त कर्म को फिर कभी नहीं बाँधता है (३३)।
यहाँ प्रसंगवश यह शंका उपस्थित की गयी है कि जब तक जीव के उस सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं हो जाता है तब तक चूंकि उसके बहुतर बन्ध होनेवाला है, अतएव उसके उस ग्रन्थिस्थान तक कर्मस्थिति की हीनता आदि का जो निर्देश किया गया है वह सम्भव नहीं है। इस शंका का तथा इसके ऊपर से उद्भूत कुछ दूसरी शंकाओं का भी यहाँ अनेक दृष्टान्तों के आश्रय से समाधान किया गया है (३४-४२)।
इस प्रकार प्रसंगप्राप्त कर्म के भेद, उनको उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साधनों की प्ररूपणा करके आगे उस सम्यग्दर्शन के विविध भेदों और उसके अनुमापक उपशम-संवेगादिरूप कुछ बाह्य चिह्नों की भी प्ररूपणा की गयी है (४३-५९)। तत्पश्चात् इस सबका उपसंहार करते हुए तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीवाजीवादि तत्त्वार्थों व उनके भेद-प्रभेदों का विशदतापूर्वक विवेचन किया गया है (६०-८३)।
प्रकृत सम्यग्दर्शन का परिपालन करते हुए जिन पाँच अतिचारों का परित्याग करना चाहिए वे ये हैं-१ शंका. २ कांक्षा. ३ विचिकित्सा. ४ परपाषण्डप्रशंसा और ५ परपाषण्डसंस्तव। यहाँ प्रसंगप्राप्त इन अतिचारों के स्वरूप, उनकी अतिचारता और उनसे आविर्भूत होनेवाले पारलौकिक व ऐहिक दोषों का भी दिग्दर्शन कराया गया है। ऐहिक दोषों का कथन करते हुए यहाँ क्रम से ये उदाहरण भी दिये गये हैं१. पेयापेय (दो श्रेष्ठिपुत्र), २. राजामात्य, ३. विद्यासाधक श्रावक व श्रावक-पुत्री, ४. चाणक्य और सौराष्ट्र श्रावक (८६-९३)। गाथा ८६ में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से यहाँ इनके अतिरिक्त अन्य अतिचारों की भी सम्भावना प्रकट की गयी है। यथा-साधर्मिकानुपबृंहण और साधर्मिक-अस्थितीकरण आदि (९४-९५)। सातिचार सम्यग्दर्शन चूँकि मुक्ति का साधक नहीं हो सकता है, अतएव प्रकृत अतिचारों के परित्याग की प्रेरणा करते हुए यहाँ उन अतिचारों की असम्भावनाविषयक शंका को उपस्थितर करके उसका सयुक्तिक समाधान किया गया है (९६-१०५)।
इस प्रकार इस प्रासंगिक कथन को समाप्त करके प्रस्तुत बारह प्रकार के श्रावकधर्म के निरूपण का उपक्रम करते हुए यहाँ सर्वप्रथम स्थूलप्राणिवधविरमण आदि पाँच अणुव्रतों का निर्देश किया गया है व उनमें प्रथम स्थूलप्राणिघातविरमणरूप अणुव्रत का विवेचन करते हुए उस स्थूलप्राणिघात की सम्भावना संकल्प व आरम्भ के द्वारा दो प्रकार से बतलायी गयी है। गृहस्थ चूँकि आरम्भ में रत रहा करता है, अतएव वह उक्त स्थूलप्राणिवध का परित्याग केवल संकल्पपूर्वक कर सकता है। हाँ, यह अवश्य है कि आरम्भकार्य को भी वह इतनी सावधानी से करता है कि उसमें निरर्थक प्राणिवध नहीं होता। प्रकृत अणुव्रत को वह मोक्षाभिलाषी होकर गुरु के पादमूल में चातुर्मास आदि रूप कुछ नियत काल तक अथवा