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प्रस्तावना
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प्रारम्भ करने के पहले ही इसे सचेत करते हुए कहते हैं कि हे मुमुक्ष! तूं मोक्षरूप महानगर की यात्रा के लिये निकला है, देख, कहीं बीच में ही पुण्य के प्रलोभन में नहीं पड़ जाना। यदि उसके प्रलोभन में पड़ा तो एक झटके में ऊपर से नीचे आ जावेगा और सागरों पर्यन्त के लिये उसी पुण्य-महल में नजरकैद हो जायेगा।
अधिकार के प्रारम्भ में ही कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं कि लोग अशुभ को कुशील और शुभ को सुशील कहते हैं। परन्तु वह शुभ सुशील कैसे हो सकता है, जो इस जीव को संसार में ही प्रविष्ट रखता है, उससे बाहर नहीं निकलने देता। बन्धन की अपेक्षा सुवर्ण और लोह दोनों की बेड़ियाँ समान हैं। जो बन्धन से बचना चाहता है उसे सुवर्ण की भी बेड़ी तोड़नी होगी।
वास्तव में यह जीव पुण्य का प्रलोभन तोड़ने में असमर्थ-सा हो रहा है। यदि अपने आत्म-स्वातन्त्र्य तथा शुद्धस्वभाव की ओर इसका लक्ष्य बन जावे तो कठिन नहीं है। दया, दान, व्रताचरण आदि के भाव लोक में पुण्य कहे जाते हैं और हिंसा आदि पापों में प्रवृत्तिरूप भाव पाप कहे जाते हैं। पुण्यभाव के फलस्वरूप पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है और पाप भाव के फलस्वरूप पापप्रकृतियों का बन्ध होता है। जब उन पुण्य और पापप्रकृतियों का उदयकाल आता है तब इस जीव को सुख-दुःख का अनुभव होता है। परमार्थ से विचार किया जावे तो पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध इस जीव को संसार में ही रोकनेवाला है। इसलिये इनसे बचकर उस तृतीय अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये, जो पुण्य और पाप दोनों के विकल्प से परे हैं। उस तृतीय अवस्था में पहुँचने पर ही यह जीव कर्मबन्ध से बच सकता है और कर्मबन्ध से बचने पर ही जीव का वास्तविक कल्याण हो सकता है। उन्होंने कहा है
___परमट्ठबाहिरा जे, अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति।
संसारगमणहे, वि मोक्खहेउं अजाणंता।।१५४।। जो परमार्थ से बाह्य हैं अर्थात् ज्ञानात्मक आत्मा के अनुभवन से शून्य हैं वे अज्ञान से संसारगमन का कारण होनेपर भी पुण्य की इच्छा करते हैं तथा मोक्ष के कारण को जानते भी नहीं हैं।
यहाँ आचार्य महाराज ने कहा है कि जो मनुष्य परमार्थज्ञान से रहित हैं वे अज्ञानवश मोक्ष का साक्षात् कारण जो वीतरागपरिणति है उसे तो जानते नहीं हैं और पुण्य को मोक्ष का साक्षात् कारण समझकर उसकी उपासना करते हैं। जब कि वह पुण्य संसार की प्राप्ति का कारण है। कषाय के मन्दोदय में होनेवाली जीव
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