________________
प्रस्तावना
xxxi
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं।
जाण अलिंग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं।।४९।। अर्थात् हे भव्य! तू आत्मा को ऐसा जान कि वह रसरहित है, रूपरहित है, गन्धरहित है, अव्यक्त अर्थात् स्पर्शरहित है, शब्दरहित है, अलिङ्ग ग्रहण है अर्थात् किसी खास लिङ्ग से उसका ग्रहण नहीं होता तथा जिसका कोई आकार निर्दिष्ट नहीं किया गया है, ऐसा है , किन्तु चेतनागुणवाला है।
यहाँ चेतनागुण जीव का स्वरूप है और रस, गन्ध आदि उसके स्वरूप नहीं हैं। परपदार्थ से उसका पृथक्त्व सिद्ध करने के लिए ही यहाँ उनका उल्लेख किया गया है। वर्णादिक और रागादिक सभी जीव से भिन्न हैं—जीवेतर हैं। इस तरह इस जीवाजीवाधिकार में आचार्य ने मुमुक्षु प्राणी के लिये परपदार्थ से भिन्न जीव के शुद्ध स्वरूप का दर्शन कराया है। साथ ही उससे सम्बन्ध रखनेवाले पदार्थ को अजीव दिखलाया है। वस्तुत: यह संसार जीव और अजीवमय ही तो है। यह जीवाजीवाधिकार ३८वीं गाथा से लेकर ६८वीं गाथा तक चला है। (३) कर्तृकर्माधिकार
जीव और अजीव (पौद्गलिककर्म) अनादिकाल से सम्बद्ध अवस्था को प्राप्त हैं, इसलिए प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इनके अनादि सम्बन्ध का कारण क्या है? जीव ने कर्म को किया या कर्म ने जीव को किया? यदि जीव ने कर्म को किया तो जीव में ऐसी कौन-सी विशेषता थी कि जिससे उसने कर्म को किया। यदि बिना विशेषता के ही किया तो सिद्ध महाराज भी कर्म को करें, इसमें क्या आपत्ति है?
और कर्म ने जीव को किया तो कर्म में ऐसी विशेषता कहाँ से आई कि वह जीव को कर सके—उसमें रागादिक भाव उत्पन्न कर सके। बिना विशेषता के ही यदि कर्म रागादिक करते हैं तो कर्म के अस्तित्वकाल में सदा रागादिक उत्पन्न होना चाहिए। इस प्रश्नावली से बचने के लिए यह समाधान किया गया है कि जीव के रागादि परिणामों से पुद्गलद्रव्य में कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गल के कर्मरूप परिणमन-उनकी उदयावस्था का निमित्त पाकर आत्मा में रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं। इस समाधान में जो अन्योन्याश्रय दोष आता है उसे अनादि संयोग मानकर दूर किया गया है। इस कर्तृकर्माधिकार में कुन्दकुन्दस्वामी ने इसी बात का बड़ी सूक्ष्मता से निरूपण किया है। इस वर्णन को समझने के लिए सबसे पहले उपादानोपादेय भाव और निमित्त-नैमित्तिकभाव को समझना आवश्यक है। इसके बिना कर्तृकर्माधिकार का सूक्ष्म विषय सहसा ग्रहण में नहीं आता।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org