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समयसार
महाराज ने कहा है कि हे भाई-ये सब भाव पुद्गलद्रव्य के परिणमन से निष्पन्न हैं, अत: पुद्गल के हैं, तूं इन्हें जीव क्यों मान रहा है। यथा
एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति बुच्चंति।।४४।।
जो स्पष्ट ही अजीव हैं, उनके कहने में तो कोई खास बात नहीं है। परन्तु जो अजीवाश्रित परिणमन जीव के साथ धुलमिलकर अनित्य तन्मयीभाव से तादात्म्य जैसी अवस्था को प्राप्त हो रहे हैं उन्हें अजीव सिद्ध करना इस अधिकार की विशेषता है। 'रागादिक भाव अजीव है, गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि भाव अजीव हैं। यह बात यहाँ तक सिद्ध की गई है। अजीव हैं—इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ये घटपटादि के समान अजीव हैं। यहाँ 'अजीव हैं' इसका इतना तपर्य है कि ये जीव की निज परिणति नहीं हैं। यदि जीव की निज परिणति होती तो त्रिकाल में इनका अभाव नहीं होता। परन्तु जिस पौद्गलिक कर्मकी उदयावस्था में ये भाव होते हैं उसका अभाव होने पर ये स्वयं विलीन हो जाते हैं। अग्नि के संसर्ग से पानी में उष्णता आती है, परन्तु वह उष्णता सदा के लिए नहीं आती है। अग्नि का सम्बन्ध दूर होते ही दूर हो जाती है। इसी प्रकार क्रोधादि कर्मों के उदयकाल में होनेवाले रागादि भाव आत्मा में अनुभूत होते हैं परन्तु वे संयोगज भाव होने से आत्मा के विभाव भाव हैं, स्वभाव नहीं, इसीलिए उनका अभाव हो जाता है। ये रागादिक भाव आत्मा को छोड़कर अन्य जड़ पदार्थों में नहीं होते किन्तु आत्मा के उपादान से आत्मा में उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें आत्मा के कहने के लिए अन्य आचार्यों ने एक अशुद्ध निश्चयनय की कल्पना की है। वे शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के नहीं हैं। परन्तु अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के हैं, ऐसा कथन करते हैं। परन्तु कुन्दकुन्दस्वामी तो बेदाग और बेलाग बात कहना पसन्द करते हैं। वे विभाव को आत्मा के मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें आत्मा के कहना इसे वे व्यवहारनय का विषय मानते हैं और उस व्यवहार का, जिसे कि उन्होंने अभूतार्थ कहा है। व्यवहार को अभूतार्थ कहने का तात्पर्य इतना ही है कि वह अन्य द्रव्याश्रित परिणमन को अन्य द्रव्य का परिणमन मानता है। 'व्यवहारनय अभूतार्थ है' इसका यह अर्थ ग्राह्य नहीं है कि वह अनुपादेय है। पात्र की योग्यता के अनुसार व्यवहार की उपादेयता का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। यहाँ इतनी बात खासकर ध्यानस्थ करना आवश्यक है कि यह कथन निमित्तप्रधान दृष्टि का है, उपादानप्रधान दृष्टि का नहीं। उपादानप्रधान दृष्टि में रागादिक का उपादान आत्मा ही है, कर्मरूप पुद्गल नहीं।
इसी प्रसङ्ग में जीव स्वरूप बतलाते हुए कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है
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