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समयसार
तीर्थ की प्रवृत्ति का लोप हो जावेगा अर्थात् धर्म का उपदेश ही नहीं हो सकेगा। फलतः धर्मतीर्थ का लोप हो जावेगा और यदि निश्चय को त्याग दोगे, तो तत्त्व के स्वरूप का ही लोप हो जावेगा, क्योंकि तत्त्व को कहनेवाला तो वही है। यही भाव श्रीअमृतचन्द्रसूरिने भी कलशकाव्य में दरशाया हैउभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।१४।। अर्थात जो जीव स्वयं मोह का वमन कर निश्चय और व्यवहारनय के विरोध को ध्वस्त करनेवाले एवं स्यात्पद से चिह्नित जिनवचन में रमण करते हैं वे शीघ्र ही उस समयसार का अवलोकन करते हैं जो कि परम ज्योतिस्वरूप है, नवीन नहीं अर्थात् द्रव्य-दृष्टि से नित्य है और अनयपक्ष-एकान्तपक्ष से जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
सम्यक्दृष्टि जीव वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करने के लिए दोनों नयों का आलम्बन लेता है। परन्तु श्रद्धा में वह अशुद्धनय के आलम्बन को हेय समझता है। यही कारण है कि वस्तु-स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान होने पर अशुद्धनय का आलम्बन स्वयं छूट जाता है। कुन्दकुन्दस्वामी ने उभय नयों के आलम्बन से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन किया है, इसलिए वह निर्विवाद रूप से सर्वग्राह्य है। समयप्राभृत के अधिकारों का प्रतिपाद्य विषय
(१) पूर्वरङ्ग-कुन्दकुन्दस्वामी ने स्वयं पूर्वरङ्ग नाम का कोई अधिकार सुचित नहीं किया है। परन्तु संस्कृतटीकाकार अमृतचन्द्रसूरि ने ३८ वी गाथा की समाप्ति पर पूर्वरङ्ग समाप्ति की सूचना दी है। इन ३८ गाथाओं में प्रारम्भ की १२ गाथाएँ पीठिकारूप में हैं, जिनमें ग्रन्थकर्ता ने मङ्गलाचरण, ग्रन्थ-प्रतिज्ञा, स्व-समयपरसमय का व्याख्यान तथा शुद्धनय और अशुद्धनय के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। इन नयों के ज्ञान विना समयप्राभृत को समझना अशक्य है। पीठिका के बाद ३८वी गाथा तक पूर्वरङ्ग नाम का अधिकार है, जिसमें आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निदर्शन कराया गया है। शुद्धनय आत्मा में जहाँ द्रव्यजनित विभाव-भाव को स्वीकृत नहीं करता वहाँ वह अपने गुण और पर्यायों के साथ भेद भी स्वीकृत नहीं करता। वह इस बात को भी स्वीकृत नहीं करता कि आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र ये गुण हैं क्योंकि इनमें गुण और गुणी का भेद सिद्ध होता है। वह
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