Book Title: Rasarnavsudhakar Author(s): Jamuna Pathak Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series View full book textPage 6
________________ प्राक्कथन रसार्णवसुधाकर शिङ्गभूपालकृत नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। प्राय: कारिका रूप में उपनिबद्ध रञ्जक, रसिक और भावक अभिधान वाले तीन विलासों में विभक्त है। विषयवस्तु की स्पष्टता के लिए इसमें थोड़ी बहुत गद्य विधा का भी प्रयोग मिलता है। इस ग्रन्थ में संस्कृतनाट्यों से सम्बन्धित नाट्यकला विषयक सम्पूर्ण तथ्यों का परिनिष्ठता और क्रमबद्ध साङ्गोपाङ्ग विवेचन हुआ है। प्राचीन आचार्यों ने नाट्यविषयक तीन पक्षों- रचनात्मकता, रसात्मकता और प्रायोगिता का प्रतिपादन किया है। रसार्णवसुधाकर में रचनात्मक स्वरूप के अन्तर्गत नाट्य के दश भेंदों का स्वरूप, कथावस्तु तथा उसके भेद-प्रभेदों, सन्धियों, सन्ध्यङ्गों, अर्थप्रकृतियों, छत्तीस भूषणों, इक्कीस सन्ध्यन्तरों का विस्तृत तथा शास्त्रीय निरूपण किया गया है। प्रतिपादित लक्षणों के स्पष्टीकरण के लिए ग्रन्थकार ने प्रचुर उदाहरणों को प्रस्तुत किया है जब कि अन्य नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थकर्ता एक-दो उदाहरण देकर ही सन्तुष्ट हो गये हैं। इसके उदाहरण संस्कृत साहित्य के विशाल क्षेत्र से लिये गये हैं। इसमें कतिपय उदाहरण ग्रन्थकार द्वारा रचित हैं। जिसमें कुछ कुवलयावली और कन्दर्पसम्भव से उदधृत हैं तथा कुछ मुक्तक हैं। रसार्णवसुधाकर में यद्यपि पूर्ववर्ती आचार्यों परम्परा का निर्वाह किया गया है फिर भी उसमें समुचित परिवर्तन, परिवर्द्धन और मौलिकता का सनिवेश है। नाट्यकला की परिकल्पना आचार्यों द्वारा रसोद्बोधन के लिए की गयी थी। इस प्रकार रस ही नाट्य का जीवनधायक तत्त्व है। वस्तुत: नाट्य का परमलक्ष्य दर्शकों तथा पाठकों को अनुरञ्जित करना है। 'विभावानुभावव्यभिचारियोगाद्रसन्निष्पत्ति' के अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारियों के योग से रस की निष्पत्ति होती है। रसार्णसुधाकर में विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव- इन तीन रस के अभिधायक तत्त्वों का विस्तृत और परस्परविरोधी मान्यताओं में औचित्यपूर्ण मान्यता को नि:सङ्कोच स्वीकार किया गया है और असङ्गत मतों की समालोचना करते हुए अस्वीकार कर दिया गया है। रसार्णवसुधाकर में नाट्यकला के रचनात्मक और रसात्मक पक्ष का जितना विस्तृत विवेचन हुआ है उतना प्रायोगिक पक्ष का नहीं, क्योंकि इसमेंPage Navigation
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