Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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। उनतालीस ) ८१ अर्गलपुर जिन बन्दना (६३७१)
. यह रचना मी कविवर भगकतीदास की है जो देहली निवासी थे । इसमें प्रागरे में संवत् १६५१ में जसने भी जिन मन्दिर एवं चैत्यालय थे उन्हों का वर्णन किया गया है। रचना ऐतिहासिक है. तथा “अर्गलपुर पट्टणि जिरण मन्दिर जो प्रतिमा रिमि गई" यह प्रत्येक पद्म की टेक है। प्रत्येक पद्य १२ पंक्ति वाला है। पूरी रचना में २१ पद्य है। आगरा में तत्कालीन श्रावकों के भी किसने ही नामों का उल्लेख किया गया है। एक उदाहरण देखिये....
साहु नराइनी करिउ जिनालय अति उत्तग धुज सोहह हो । गधकुटी जिन विब विराजल अमर खबर सोहा हो । जगभूषनु भट्टारक तिह थलि काम करि छमइ यो हो। श्रत सिद्धान्त उदधि बुधि गण हंस पंचम काल दिसिंद हो। . तिनि इकु प्रलोकु सुनायो मुख भानी रामपुरी धनि लोक हो। बिह सरवरि निस हंस विराअइ सोम खस घर स्लोक हो। नूप मगल उडि जाति जहां से तिह सरि सोभा नाही हो। . जानी अझ दानी जग मंडरग समुझि लखो मनमाही हो। समझि लखहि मन माहि समुरण जण सुनि वानी गुरु देवा । ::
मुर सुम्बु देखि भर्भ पदु पावहि करहि साधु रिसि सेवा ॥१६॥ ८२ संतोष जयतिलक (९४२१)
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यह बुचराज कवि का रूपक काब्य है जिसमें संतोष की लोम पर विजय का वर्णन किया गया है। संतोष के प्रमुख अंग हैं शील, सदाचार, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र, वैराग्य, तप, करुणा क्षमा एवं संयम । लोम के प्रमुख अंगों में मान, क्रोध, मोह, माया कलह नादि है । कवि ने इन पात्रों की संयोजना करके प्रकाश और प्रम्पकार पक्ष की मौलिक सद्भावना प्रस्तुत की है। इसमें १३१ गदा हैं जो सारिक, रह रंगिक्का, माथा, दोहा, पद्धडी, भडिल्ल, रासा, आदि छन्दों में विभक्त है। इस काव्य की एक प्रति वि० जैन मन्दिर नेमिनाथ बूंदी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
३ चेतन पुद्गल धमालि ९४२१)
यह कवि का दूसरा रूपक काव्य है । वैसे तो कवि का 'मयपजुझ अत्यधिक प्रसिद्ध रूपक काव्य है। लेकिन भाषा एवं शैली की दृष्टि से वेतन पुद्गल श्रमालि सबसे उत्तम काम्य है। इसमें कवि ने जीव और पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्धों का तुलनात्मक वर्णन किया है । वास्तव में यह एक संवादात्मक रूपक काव्य है। जिसके जश एवं जीव दोनों नायक है । काव्य का पूरा संवाद रोचक है तथा कवि ने उसे बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें १३६ पद्य हैं जिनमें १२१ पञ्च दीपक राग के सथा ५ पद्य प्रष्ट छप्पय छन्द के हैं। रचना में रचनाकाल का उल्लेख नहीं है । अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है
जे वचन श्रीजिरण पीरि मासे, तास नित धारह हीया ।' इव भणइ बूचा सदा निम्मल, मुकति सरूपी जिया ॥
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