________________ पुराणों का वैदिक संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। पुराणों को वेदमूलक भी कहा है। पुराणों में अनेक विषय वर्णित हैं। सभी पुराण एक साथ निर्मित न होकर विभिन्न समयों में निर्मित हुए हैं, अतः उनमें उन-उन समयों में प्रचलित अनेक मत-मतान्तर समाविष्ट होते रहे हैं। पुराण प्रमुखतः अठारह हैं। जिनमें अधिकतर ये पाँच विषय विवेचित हैं-सर्ग (सृष्टिक्रम), प्रतिसर्ग (प्रलय), मन्वन्तर और देव,ऋषि.राजवंश और राजाओं का इतिहास। इनके अलावा आचार, आत्मा, कर्म आदि से सम्बन्धित सिद्धान्तों का भी यथास्थल उल्लेख प्राप्त होता है। इन्हीं दार्शनिक सिद्धान्तों में जैनसम्मत सिद्धान्त भी दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरणतया हम पद्मपुराण में प्राप्त आहेतधर्म सम्बन्धित विश्लेषण देख सकते हैं जिसमें श्रावक, चौबीस तीर्थंकर, व्रत आदि वर्णित हैं। इसी में यज्ञ और दया का तुलनात्मक विश्लेषण है। पुण्य स्नान, भाव शौच इत्यादि अनेक प्रसंग भी अंकित हैं। “अहिंसा परमो धर्मः” इत्यादि सिद्धान्त भी विशिष्ट तौर पर लिखित हैं। यही नहीं, निवृत्ति का भी वर्णन विशेष रूप से किया गया है। यथा मुमुक्षु को निवृत्ति मार्ग पर आरूढ़ होने हेतु प्रेरित करते हुए हरिवंश पुराण का स्पष्ट कथन है- “जो योगी कर्मबंध से मुक्त होकर इन्द्रिय बंधनों को भी काट फेंकते हैं, वे ही उस परम पद तक पहुँचने में समर्थ होते हैं, पर जो यज्ञ-अग्निहोत्रादि में लगे रहते हैं, वे वहाँ नहीं पहुँच सकते।” (पृ. 207) ठीक इसी प्रकार का मन्तव्य जैनदर्शन का भी है। ऐसे बहुत-से समान मत पुराण तथा जैनधर्म में उपलब्ध होते हैं, उनका विशिष्ट रूप से इस शोधकार्य में यथाप्रसंग प्रतिपादन किया गया है। इस शोधकार्य से “जैनधर्म कितना प्राचीन है।” यह ऐतिहासिक बिन्दु भी प्रकाशित होगा। पुराणों में जैनधर्म का उल्लेख किस प्रकार से हुआ-यह देखना भी इस शोध का ध्येय है। वैदिक संस्कृति की प्रतिपादन शैली कुछ इस प्रकार की है कि उसका प्रत्येक साहित्य परस्पर थोड़ा-बहुत वैभिन्य तो रखता ही है। वेदों में जिस प्रकार से स्तुतियाँ एवं कर्मकाण्ड हैं, उपनिषदों में वह नहीं है। बहुत ज्यादा परिवर्तन एवं भिन्न चिन्तन भी उपनिषदों से मुखर होता है। इससे आगे पुराणों में भी भिन्नता के स्वर प्रस्फुटित होते हैं अर्थात् प्रारम्भिक वैदिक साहित्य वेदों में कर्मकाण्ड का प्रामुख्य है। परवर्ती उपनिषदादि में ज्ञानमार्ग का, तो पुराणों में मुख्यस्वर भक्ति का, एवं भगवद्गीता में तीनों का समन्वय किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन पुराणों का पर्याप्त महत्व है क्योंकि इनमें तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक परिवेशों का विवेचन विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। ' . 3 / पुराणों में जैन धर्म