Book Title: Puhaichandchariyam Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani Publisher: Prakrit Text Society AhmedabadPage 24
________________ १३ करें वैसा किया है । इस कारण से ऐसे रस वर्णनों की रचना में ग्रन्थकार ने एक कवि की भूमिका को ही निभाने का प्रयत्न किया है। आत्मकल्याण के लिए मौलिक उपदेशों के अतिरिक्त गृहस्थजीवन के व्यवहार में अनेकविध सुसंस्कारों की प्रेरणा दे सके वैसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अथवा मर्यादित परिग्रह आदि व्रतों का उपदेश और व्यावहारिक नीतियों के सम्बन्ध में प्रसंग प्रसंग पर आनेवाले सुभाषितों और उक्तियों से प्रस्तुत ग्रन्थ की उपयोगिता और मधुरता में वृद्धि हुई है । और भी अपभ्रंश पद्यों देश्य शब्दों तथा मुदित प्राकृत शब्दकोष में अद्यावधि नहीं आये हुए शब्दों का चयन भी ठीक ठीक प्रमाण में हुआ है, जो विद्वानों और भाषाविदों को अभ्यास की दृष्टि से अधिक उपयोगी है। इस प्रन्थ में अन्तरकथाएँ, अवान्तर कथाएँ तथा पूर्वभव कथाएँ भी अनेक हैं। उनका, एवं समग्रग्रन्थ के, परिचय के लिए ग्रन्थ की विस्तृत विषयानुक्रमणिका को देखने का मैं पाठकों को सूचन करता हूँ। ग्रन्थगत अनेक हृदयंगम और पाण्डित्यपूर्ण आलंकारिक संदर्भो को बताने के लिए तो एक छोटा सा निबन्ध लिखा जा सकता है। ये सभी संदर्भ विविध दृष्टि से अत्यन्त उपयोगो होने पर भी समयाभाव के कारण मैं यहाँ बता नहीं सकता फिर भी प्रत्येक कथा प्रसंग के निरूपण के साथ साथ ग्रन्थकार के द्वारा साधित तादास्य को सामान्य कल्पना पाठकों को आजाय उस दृष्टि से उदाहरणरूप एक प्रसंग यहाँ देता हूँ। श्रीकेतु नामका राजा अपनी सगर्भा वैजयन्ती रानी को राज्यगद्दी सौंप कर प्रवजित हुआ। रानी ने पुत्री को जन्म दिया। मतिवर्द्धन नाम के अमात्य ने राज्य की सुरक्षा का विचार करके पुत्री के जन्म को पुत्र के जन्म के रूप में प्रकट करके उसका जन्मोत्सव किया । उसका नाम गुणसेन रखा। राजकुमारी को राजकुमार (गुणसेन) के वेष में ही रखा और राजकुमार जैसा ही उसके साथ व्यवहार रखा । पुरुषवेश में राजकुमारी युवा हुई । नारी देह की गुप्तता को पुरुषवेष में लम्बे समयतक छिपा रखना मुष्किल था, अतः अमात्य तथा रानी को राजकुमारी के लिए योग्य पति की चिन्ता हुई। और नगर के यक्ष की सहायता से राजकुमार के वेष में सिंहासन पर बैठी हुई राजकुमारी के सन्मुख कमलसेन नामके एक राजकुमार को सन्मानपूर्वक उपस्थित किया गया। राजकुमार के वेष में बैठी हुई राजकुमारी (गुणसेन) को यह पता था कि आगन्तुक राजकुमार कमलसेन मेरा भावी पति है । जब कि राजकुमार कमलसेन, गुणसेन को राजा मानकर उसका सन्मान, प्रणाम और शिष्टाचार करने के लिए तत्पर होता है । यह प्रसंग अन्धकार के शब्दों में देखिए "पणमंतो य निवारिओ राइगा दिद्विसन्नाए । तओ 'किमयं ? ' ति सवियको, दोलंतकन्नकुंडलेण सेयबिंदुमुत्ताहलजालालंकियमालवद्वेण मंतिवयणनिबद्धदिट्ठिणा खलंतक्खरमालतो य सु....सु....सुयण! पु....पुच्छामो क....क....कत्तो एसि ! कि....कि....किमेगागी । कु....कु....कुसलं तु ...तु....तुम्भं ? स....स....सा....सा....सागयं सुटु ॥" अर्थात् गुणसेनकुमार( राजकुमारी) आंख का इशारा करके प्रणाम करते हुए कमलसेन को रोकता है। इस कारण से ' ऐसा क्यों ? ' ऐसे वितर्क में पड़े हुए कमलसेन कुमार को [ 'औचित्य के खातिर कुछ कहना चाहिए' इस कर्तव्य से प्रेरित होकर ] गुणसेनकुमार (राजकुमारी) उपरोक्त गाथा कहता है। इस गाथा में स्पष्ट तो इतना ही कहना था कि 'सुयण ! पुच्छामो कत्तो एसि! किमेगागी ? कुसलं तुम्भं ? सामयं सुटु ।' इतना कहने में गुणसेनकुमार(राजकुमारी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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