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उसके अन्त में उपरोक्त गाथाएँ लिखी हुई हैं। ज्ञानमन्दिर में इस प्रति का क्रमाङ्क ९५०५ है। ये गाथाएँ किसी प्राचीनग्रन्थ की है अथवा पृथ्वीचन्द्रचरित्र के आधार से किसी ने संग्रहणीगाथा के रूप में बनाई हैं यह एक शोध का विषय है।
प्रसिद्ध विद्याविभूति आ० श्री हरिभद्रसूरि ने अपने उपदेशपद में पृथ्वीचन्द्र के भवों का उल्लेख तो किया है, किन्तु उसमें केवल शंख-कलावतीभव के सिवाय २ से ११ भव में शंखराजा के ही भव बताये हैं, और वे भी उस उस भव के मुख्य नाम के सिवाय । उपदेशपद के सम्बन्ध में विशेष हकीकत आगे 'पूर्वस्रोत' में कहनेवाला हूँ अतः यहाँ विशेष नहीं लिखता । स्वयं प्रन्थकार ने प्रस्तुत चरित्र का अतिसंक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया है
"यह चरित्र एक धर्मकथा है (पृ० ५ गा० १२) । मुख्यतः यह धर्मकथा होने पर भी यहाँ उस उस प्रसंग के अनुरूप काम और अर्थ विषयक निरूपण भी तत्तदधिकारी के वचनरूप से अनिवार्य बने हैं (पृ० २ गा० २१)। कईयों को गद्य रचना प्रिय होती है तो कईयों को पद्यरचना, तथा कईयों को सभंगश्लेषालंकारवाली रचना; ऐसे, और अन्य भी भिन्नभिन्न रुचिवाले व्यक्तिओं को लक्ष्य में रखकर कुछ स्थानों में संक्षेप से तो कुछ स्थानों में विस्तार से विविध रसवाला यह चरित्र रचा है (पृ० २२१ गा. २८४ ) । यहाँ मर्यादित प्रमाण में ही कविधर्म बताया है। विविध वर्णन भी प्रमाण में अल्प है फिर भी कथांग-कथावस्तु अधिक होने के कारण कहीं २ विस्तार करना भी अनिवार्य होगया है (पृ. २२१ गा० २८२)। संवेगरूपी दिव्यरस से भरा हुआ और मन्दबुद्धिवाले जीवों को हितकर ऐसा यह चरित्र संक्षेप से किन्तु स्पष्ट कहा है (पृ० २२१ गा० २८१)। विविध उपकथाओं से-अन्तरकथाओं से रम्य और जिस में गुरुबहुमान का बोधक यतिधर्म का निरूपण हुआ है वैसा यह चरित्र मनुष्यभव को प्राप्त कर अच्छी तरह से सुनना चाहिए (पृ० २२१ गा० २८३)। [ग्रन्थकार के ] शिष्य श्री मुनिचन्द्रमुनि की प्रार्थना से संवेगरूपी पानी के निपान-होज के समान इस श्रेष्ठ चरित्र की रचना की है (पृ० २२२ गा० २८९)।"
ग्रन्थकार ने अपनी कृति के लिए आत्मश्लाघा न हो जाय इस बात की सावधानी रखते हुए जो उपर की बातें बताई हैं उसपर से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकार को अपनो रचना के लिए ठीक ठीक प्रमाण में आ होना चाहिए।
जैन कथा-चरित्रों में संसार की असारता, भयुष्य की क्षणभंगुरता, वैराग्य, व्रत, नियम आदि धार्मिक उपदेशों तथा जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों और मान्यताओं का वें वें ग्रन्थकार अपनी अपनी क्षमता और शैली के अनुसार मुख्यतया निरूपण करते रहे हैं। इस मुख्य प्रतिपाद्य विषय को सूचित करने के लिए, कथाप्रसंगों में वाचक-श्रोताओं का रस सुरक्षित रखने के लिए, निःस्पृह त्यागी जैन विद्वानों को विविध रसों का एवं पार्थिव वैभवों का वर्णन भी अपनी अपनी कक्षा के अनुसार करना पड़ा है। ऐसे चरित्रग्रन्थों में श्री पादलिससूरिरचित तरंगवतीकथा मुख्य कही जा सकती है। यह कथा अनुपलब्ध है और इसका गौरवपूर्ण उल्लेख अनेक लब्धप्रतिष्ठ जैन चरित्रकार विद्वानोंने किया है। आज उपलब्ध जैन कथासाहित्य में भी आ० उद्योतनसूरिकृत 'कुवलयमाला कथा' जैसे कतिपय ग्रन्थ हैं, जिस में वाचक-श्रोताओं को भववैराग्य का बोध करवाने के मुख्य उद्देश्य के प्रभावपूर्ण ढंगसे किन्तु ठीक ठीक प्रमाण में शंगार आदि रसों का भी गुंफन हुआ है।
प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र में भी अनेक स्थानों पर भववैराग्य के लिए संसार की-पौद्गलिक सुखों की असारता खून ही असरकारक ढंग से निरूपित की है। इसके साथ साथ सांसारिक भावों और रस वर्णनोंका निरूपण भी प्रभाव उत्पन्न
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