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परमार्थ से नास्तिक कौन?|
इस दुनिया में ज्ञानी जितना उपकार कर सकते हैं, उससे भी अधिक अपकार अज्ञानी कर सकते हैं। सुयुक्तियों की अपेक्षा कुयुक्तियाँ अधिक होती है। सम्यग्दृष्टि आत्माओं की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आत्माएँ अनन्तगुनी हैं, यह बात जितनी सत्य है, उतनी ही सत्य यह बात भी है कि ज्ञानियों का ज्ञानसूर्य और उसकी जाज्वल्यमान किरणें जहाँ फैलती हैं, वहाँ कैसा भी घोर अन्धकार क्यों न हों, वह एक क्षण भी नहीं रह सकता।
श्री वीतराग की मूर्ति की पूजा करें या नहीं? इस विषय को भी बहुतों ने विवादास्पद बना रखा है। सिद्धान्तवेदी समग्र महापुरुषों ने एक मत और एक ही स्वर में फरमाया है "श्री वीतराग देव की आराधना मुख्यतया उनकी मूर्ति के द्वारा ही सम्भव है। इसके सिवाय अन्य कोटि उपायों से भी यह सुशक्य नहीं है।" दूसरी ओर अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि आत्माओं ने इसके विपक्ष में अनेक कुयुक्तियाँ उपस्थित कर ज्ञानी पुरुषों द्वारा प्रदर्शित पवित्र मार्ग को अवरुद्ध करने का प्रयास करने में जरा भी कमी नहीं रखी
जगत् में ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान का साम्राज्य विशेषतः व्याप्त है, इसलिए कुतर्कों का प्रभाव अज्ञानी और सरल वर्ग पर हुए बिना नहीं रह सकता। एक ओर तो स्वभावतः अज्ञान का साम्राज्य और दूसरी ओर कुतर्कों का प्राबल्य - दोनों का मिलन होने से श्री वीतरागदेव की पवित्र मूर्ति और उसकी परमकल्याणकारी उपासना से भी अज्ञानी और सरल आत्माओं का मन विचलित हुए बिना न रहे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
नास्तिक से भी, परमार्थ से नास्तिक ऐसे दिखावटी आस्तिक द्वारा विशेष अनर्थ होता है। जिस प्रकार मूर्ति नहीं मानने के मत की उत्पत्ति भयंकर अज्ञान में से ही हुई है, उसी प्रकार मूर्ति की उपासना को एक हिंसक कर्तव्य के रूप में जानने अथवा पहचनाने की कुबुद्धि भी मिथ्यात्व में से ही उद्भूत हुई है। सामान्य आत्माएँ स्वतः इस मत की भयंकर अज्ञानता और अहितकरता को समझने की स्थिति में नहीं होती और इसीलिए ज्ञानीजनों ने इसे समझाने का भगीरथ प्रयत्न किया है।
आत्मा और परलोक आदि विद्यमान और प्रमाण-सिद्ध पदार्थों को नहीं मानने वाला नास्तिक जितना अनर्थ नहीं करता है, उससे भी अधिक अनर्थ