Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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के चौथे काल में भरत क्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र में २४-२४ तीर्थकर अवतरित हो धर्मतीर्थ का प्रणयन करते हैं । एक तीर्थंकर से दूसरे तीर्थकर को केवलोत्पत्ति के पूर्व तक पहले तीर्थङ्कर का तीर्थकाल माना जाता है ।
कर्मभूमि का प्रारम्भ
arraft का न्त और कर्मभूमि का प्रारम्भ 'सन्धिकाल' कहा जा सकता है। इस समय समाज पूर्ण असंस्कृत, भोली, अज्ञानी और जड़ थी । रहन-सहन, खाना-पीना, पारस्परिक प्रेम-मेल-मिलाप आदि से पूर्णत: अनभिज्ञ थी । न समुचित राज्य था न योग्य प्रजा । सभी न्याय नीति, कला-विज्ञान, श्रायव्यय, अर्जन खर्च को प्रक्रिया को जानते हो नहीं थे । खाद्य सामग्री का प्रभाव बढ़ा और फलतः पारस्परिक झगड़े और वितण्डावाद भी उग्रतर होने लगा । यद्यपि "मनु" इस अव्यवस्था की रोकथाम करते रहे किन्तु उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई। चारों ओर अराजकता का साम्राज्य छाया था, त्राहि-त्राहि मची हुयी थी । चातक जिस प्रकार मेघों की ओर दृष्टि गड़ाये रहता है उसी प्रकार जनता अपने रक्षक की ओर पलक पांवड़े बिछाये बैठी थी । इसी समय कर्मभूमि के सृष्टा आदि ब्रह्मा अवतरित हुए ।
गर्भावतरण
ब्राडम्बर विहीन, परिशुद्ध पदार्थों से अलंकृत धार्मिक भावों से परिपूर्ण राजमहल रत्नों के सुखद प्रकाश से आलोकित है। गंध, पुष्पों से सुवासित कोमल गया पर गयित मरुदेवी महारानी निद्रा के अंक में विराजमान है। रात्रि के तीन पहर व्यतीत हो चुके हैं। सिद्ध परमेष्ठी के निर्मल ध्यान करती हुयी महारानी भावी सुख का मानों आह्वान कर रही है। चारों ओर शान्त वातावरण है। टिमटिम प्रदीप मुस्कुरा रहा है । यत्र-तत्र खद्योत का प्रकाश भी चमक रहा है। इसी प्रभात वेला में महारानी मरुदेवी ने १६ शुभ स्वप्न देखे | इससे ह मास पूर्व ही इन्द्र की प्रज्ञा से कुवेर ने भरत क्षेत्र के ठीक मध्य में ४८ योजन विस्तृत, सुन्दर प्रयोध्या नगरी की रचना की थी उसके मध्य में राजप्रासाद निर्मित किया । शुभ मुहूर्त में गृह प्रवेश कर प्रतिदिन चार समय अर्थात् प्रातः मध्याह्न सायंकाल एवं अर्द्धरात्रि को ३|| ३|| करोड़ रत्नों की वर्षा की थी, प्रतिदिन १४ करोड़ रत्न बरसने से घरा रत्नगर्भा
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