Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 18
________________ अपनी कल्पना से किसी भी तरह से 'व्यवहार' को शुद्ध करार देने के पक्षधर बन रहे हो । यदि व्यवहार को व्यवहार की पद्धति में कुछ कहते, तो भी हम मान लेते; लेकिन जहाँ परमार्थ का प्रकरण हो, शुद्धात्मा की बात कही जा रही हो, वहाँ परमार्थ की दृष्टि में ‘व्यवहार' हेय ही है— यह आचार्य और कुन्दकुन्द एवं आचार्य अमृतचन्द्र का प्रामाणिक-निर्णय है । इसे फिर से समझने का प्रयत्न कीजिये । आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस 'तथ्य' व 'सत्य' को प्रकट किया है, वह वास्तव में जिनवरदेव की वाणी है। उसके बीच हमें अपनी कल्पना या विचार मिलाने का कोई मौलिक-अधिकार नहीं है । विशेष जानकारी के लिये माइल्लधवल - विरचित 'णयचक्को' ( नयचक्र), जिसका सम्पादन व अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने किया है, उसका पुनर्मुद्रण भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है, अवश्य पठनीय है। अन्त में हम इस लेख के द्वारा 'वीरसेवा मन्दिर' के पदाधिकारियों से हाथ जोड़कर निवेदन करना चाहते हैं कि 'अनेकान्त' पत्रिका और 'वीरसेवा मन्दिर' के दशक पूर्व के प्रकाशनों से समाज में जो प्रतिष्ठा व गरिमा बढ़ाई थी, आज वही जिनशासन को मलिन करनेवाली बन गई है। अत: यदि आप उसको पूर्ववत् रखना चाहते हैं, तो ऐसे प्रकाशनों पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगाकार विद्वानों की समिति बना लें, और उनसे संस्तुति प्राप्त होने पर ही भविष्य में कोई प्रकाशन करें। मैं आशा करता हूँ कि समाज का बौद्धिक वर्ग अविलम्ब आगम- बदलने के उपक्रम पर प्रतिबन्ध लगाने का पूर्ण- प्रयत्न करें, ताकि अवशिष्ट आगम को भ्रष्टकर नष्ट होने से बचाया जा सके। मध्यमिका के नारायण-वाटक से प्राप्त लेख की नई व्याख्या पुरातत्त्व और साहित्य - - दोनों के प्रमाणों से विदित होता है कि विक्रम से पूर्व की कई शताब्दियों में मथुरा भागवत धर्म का प्रबल केन्द्र था । वहाँ से उसके धार्मिक आन्दोलन की तरंगें चारों दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं । पश्चिम की ओर राजस्थान में भागवत धर्म का यह विस्तार जिस स्थान में हुआ, वह अड़ावला पर्वतश्रेणी के दक्षिण-पूर्व में मध्यमिका नाम की राजधानी थी। वह प्रदेश उस समय 'शिबि' जनपद कहलाता था । प्राचीन 'मध्यमिका' का नाम 'महाभाष्य' में आया है और पतंजलि ने उसके विषय में लिखा है कि " यवनों ने पूर्व में साकेत और पश्चिम में 'मध्यमिका' पर अभियान करके उसका घेरा डाला था । सौभाग्य से चित्तौड़ से लगभग 8 मील दूर पर प्राचीन मध्यमिका के खँडहर मिल गये हैं ।" 00 16 ** — (जैनलेख वीर-निर्वाण-संवत् 84 ) - प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2001

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