Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ विहारचर्या की शुद्धि और ईर्या-समिति ___जिनेश्वरी आज्ञा है कि साधुगण शास्त्र-श्रवण, तीर्थयात्रा, गुरुदर्शन आदि के प्रयोजन से आगे की चार-हाथ-प्रमाण भूमि देखकर प्रासुकमार्ग से ईर्यासमिति अर्थात् सम्यक् जागरुकतापूर्वक गमन करें।" मार्ग में प्रकाश-शुद्धि, उपयोग-शुद्धि और अवलम्बन साधुगण परिग्रहरहित होते हुए गमन करें।“ विहार-शुद्धि-हेतु साधुगण परिग्रह-रहित, निरपेक्ष, स्वच्छंदविहारी वायु के समान पृथ्वी तक पर जीवदयाभाव-सहित भ्रमण करते हैं। इससे ईर्यापथजन्य कर्मबंध नहीं होता। साधगण ज्ञान-प्रकाश से जीव-अजीव के भेद को अच्छी तरह जानकर सावद्यरूप दोष का सर्वथा त्यागकर देते हैं।" विहार करते समय वे वीतराग तीर्थंकरों के ज्ञान, दर्शन, चरित्र एवं वीर्य तथा वैराग्य की भावना भाते हैं।" ऐसे साधुगण शरीर से निरपेक्ष, इंद्रियजयी, आत्मा का दमन करते हुए धैर्यरूपी की रस्सी का अवलम्बन लेते हुए संसार के कारणों का नाश करते हैं।" साधु-संघ का अनियत विहार : लाभ और उद्देश्य 'भगवती आराधना' के 'अनियत-विहार अधिकार' में साधुओं के एक स्थान पर न रहकर विविध-देशों में बिना कार्यक्रम निश्चित किये विहार करने को 'अनियत-विहार' कहा है। 'अनियत-विहार' से (1) सम्यग्दर्शन की शुद्धि, (2) रत्नत्रय में स्थितीकरण, (3) परिषह-सहनरूप भावना, (4) अतिशयरूप अर्थ-कुशलता और (5) क्षेत्र-परिमार्ग का बोध होता है।” अनियत-विहार के इन पाँच उद्देश्यों का वर्णन 'भगवती आराधना' में गाथा 148 से गाथा 157 तक किया है, जो पठनीय है। अनियत-विहार करने से वसतिका, उपकरण, ग्राम-नगर, संघ-श्रावक आदि से ममता का बंधन नहीं होता। यह वसतिका हमारी और मैं इसका स्वामी' – इसप्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं होता और सर्वपर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भावों आदि में परिणाम नहीं बंधता; इसकारण विहार अनियत होता एकाकी विहार का निषेध जिनदीक्षा में साधुओं के निवास और विहार में एकाकीपना स्वच्छंदता का पोषक होने से निषिद्ध है। 'मूलाचार' के सामाचाराधिकार में कहा है" सच्छंद-गदागदी सयण-णिसयणा-दाण भिक्खवो सरणे। - सच्छंद जंपरोचि यमामे सत्तवि एगागी।। -(गाथा 150) अर्थ :- गमन-आगमन, सोना-बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मूल-मूत्र विर्सजन करना —इन कार्यों में जो स्वच्छंद-प्रवृत्ति करनेवाला है और बोलने में भी स्वच्छंद-रुचिवाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकल-विहारी न होवे। स्वेच्छा की प्रवृत्ति में गुरु की निंदा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थ दोष आते हैं। इससे अनेक आपत्तियाँ भी आतीं हैं। प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 10 49

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116