Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 73
________________ में व्याप्त है। वह हमारे आध्यात्मिक-जगत् की प्राणशक्ति है। यह तीन अक्षरों 'अ-उ-म्' के योग से निष्पन्न हुआ है। इसे वैदिक-परम्परा और श्रमण-परम्परा दोनों में समानरूप से अंगीकार किया गया है। ___ वैदिक-परम्परा के अनुसार 'अ' ब्रह्मावाचक है, 'उ' विष्णुवाचक है और 'म' महेशवाचक है। इसप्रकार 'ओम्' में ब्रह्मा, विष्णु और महेश —ये तीनों शक्तियाँ सन्निविष्ट हैं। मनुष्य जब 'ओंकार' का जप करता है, तब वह अपनी प्राकृतिक-प्राणशक्ति का उपयोग करता है और साथ ही अपने अन्त:करण में ब्रह्मा, विष्णु और महेश — इन तीनों की शक्ति का अनुभव करता है। इससे एक ओर उसकी प्राणशक्ति जागृत होती है, तो दूसरी ओर उसकी आंतरिक-शक्तियाँ भी क्रमश: विकसित होती जाती हैं। परिणामत: उसका आंतरिक या आध्यात्मिक-जगत् इतना अधिक उन्नत का विकसित हो जाता है कि वह अनेक ऋद्धियों और सिद्धियों का धारक बन जाता है। श्रमण-परम्परा में भी 'ओम्' या 'ओंकार' को सर्वात्मना अंगीकार किया गया है। श्रमण-मान्यता के अनुसार 'ओम्' पंचपरमेष्ठी कचक है। पंचपरमेष्ठी में अरिहंत, अशरीर (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय और मुनि (साधु) परिगणित हैं। इन पाँच परमेष्ठियों के आदि अक्षरों का संयोग करने पर 'ओम्' शब्द निष्पन्न होता है— अ+अ+आ+उ+म=ओम् । जैनधर्म के णमोकार' या 'नमस्कार महामंत्र' में उपर्युक्त पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, जो निम्नप्रकार है णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।। अर्थात् अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार और लोक के सर्वसाधुओं को नमस्कार। इसप्रकार सम्पूर्ण णमोकार-महामंत्र' 'ओम्' या 'ओंकार' में गर्भित है। एक श्रावक (जैनधर्म पालन-करनेवाला गृहस्थ) जब 'ओम्' या 'ओंकार' का जप करता है, तब वह प्राणशक्ति से समन्वित और लाभान्वित तो होता ही है, साथ ही साथ, पंचपरमेष्ठी से अपनी तन्मयता का अनुभव करता है। उस समय उसकी भावना होती है कि वह भी उन परमेष्ठियों के समान बन जाये। वह भौतिक-विषयों या पदार्थों की आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि वह जानता है कि समस्त भौतिक-पदार्थ और विषय नश्वर हैं। उनसे स्थायी-सुख और शान्ति मिलना संभव नहीं है। _ 'ओम्' की एक अन्य परिकल्पना भी जैनधर्म में अंगीकार की गयी है। तदनुसार यह रत्नत्रयरूप होता है। रत्नत्रय से अभिप्राय है-- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । ये तीनों मोक्षमार्ग के साधनभूत हैं । जब तक मनुष्य में ये तीनों आत्मसात् नहीं हो जाते, तब तक मनुष्य प्रवृत्त में उतनी योग्यता और क्षमता विकसित होना सम्भव नहीं है कि वह प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 00 71

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