Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 80
________________ अनक्षर भाषा अक्षर के साथ-साथ अनक्षर का भी भाषा की दृष्टि से महत्त्व है। दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-पर्यन्त जीवों की जो अपने-अपने संकेत प्रगट करनेवाली भाषा होती है, वह 'अनक्षरगता भाषा' कहलाती है। उच्छ्वसित, नि:श्वसित, निष्ठ्युत, कासित छींक आदि अनुस्वार के समान उच्चारण किये जाने वाले हुंकार आदि की ध्वनि 'अनक्षर रूप' है। इसप्रकार जितने अक्षर होते हैं, उनके अर्थ की अपनी विशेषता होती है। इसीतरह जब वे ही अक्षर संयोग या सन्ध्यक्षर के रूप में व्यक्त किये जाते हैं, तब भी उन अक्षरों की संख्या का विकल्प 64 ही होता है। 64 अक्षरों की एक अपनी विशेषता है, स्वररहित कवर्ग' का अनुसरण करनेवाले संयोग में उत्पन्न हुई धारणाओं का संयोगाक्षरों में समावेश हो जाता है। –सरविरहिय कवग्गाणसारिसंजोगम्हिसमुप्पण्णाणं धारणाणं संजोगक्खरेस पवेसादो। -5/5 (पृ० 249)। इसी 64 संख्या में गणित का निर्देश भी किया है। उसका अक्षर की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। अक्षर-संयोग पर प्रश्न किया गया कि 64 अक्षरों की संख्या का विरलन' कर और उसे द्विगुणित कर वर्गित, समवर्गित करने पर एक-संयोगी और दो-संयोगी आदि विकल्प कैसे हो सकते हैं? इसका समाधान दिया एक साथ उच्चारण करने का नाम 'संयोग' है। इसलिये गणित की दृष्टि के साथ-साथ अक्षर की दृष्टि भी है तथा उसके स्थान भी हैं। इसी आधार पर संयोग को एकार्थता नाम दिया गया। ___ अक्षरों का प्रमाण :- जैसाकि पूर्व में कथन किया गया कि जितने अक्षर हैं, उतने ही श्रुतज्ञान हैं। क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। . धवलाकार ने इसी आधार पर अक्षरों का प्रमाण भी दिया है। (क) वग्गक्खरा पंचवीस - वर्गाक्षर पच्चीस हैं। (ख) अंतत्था चत्तारि - अंतस्थ चार हैं। (ग) चत्तारि उम्हक्खरा - ऊष्माक्षर चार हैं। स्वर, व्यंजन एवं अयोगवाह के कारण अक्षर 64 हैं। जैसा कि कथन किया है तेत्तीस वंजणाई सत्तावीसं हवंति सव्वसरा। चत्तारि अजोगवहा एवं चउसट्ठि वण्णाओ।। 5/5 (पृ० 248) इसप्रकार शब्द, वर्ण और अक्षर का अपना स्थान है। 64 अक्षरों से 64 श्रुतज्ञान के विकल्प हैं। और उनके आवरणों का प्रमाण भी 64 है। संयोग-आवरण भी 64 हैं। अत: किसी भी भाषा के लिये इनकी ध्वनि महत्त्वपूर्ण है। वे अलग-अलग रूप में इस्व, दीर्घ आदि होती है। ध्वनि में भी आगम, लोप और विपर्यय का स्थान तथा संधि, समास, स्वर-घात, स्वर भक्ति अघोषीकरण, महाप्राणीकरण, ऊष्मीकरण एवं य-व-श्रुति आदि प्राकृत की प्रमुखता है। शौरसेनी में भी ध्वनि का महत्त्व है। 078 प्राकृतविद्या+ जुलाई-सितम्बर '2001

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