Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 79
________________ 'अ' का उच्चारण-स्थान कण्ठ है। 'इ' का उच्चारण-स्थान तालु, 'ऋ' का मूर्धा और 'लू' का दन्त माना गया है तथा 'उ' का ओष्ठ-स्थान निर्धारित किया गया। (ख) दीर्घ स्वर :- आ ई ऊ ऋ ए ऐ ओ औ 'द्विमात्रो दीर्घ उच्यते' – ( पृ० 248) इनके उच्चारण में दो मात्रा का समय लगता है। ए ऐ ओ औ को मिश्रित या सन्ध्यक्षर कहा जाता है; क्योंकि ये दो स्वरों के मेल से बनते हैं । यथा— अ +इ=ए, अ+ए=ऐ, अ+उ=ओ, अ+ओ=औ। ए और ऐ का उच्चारण-स्थान कण्ठ और तालु है । ओ और औ का उच्चारण-स्थान कण्ठ और ओष्ठ है । प्लुत 'त्रिमात्रस्तु प्लुतो' अर्थात् तीन मात्रावाला वर्ण प्लुत कहलाता है। आ इ, इ ई ई ३ आदि। अक्षरों का उच्चारण मुख के विभिन्न स्थानों से होता है । अत: उन्हें अक्षरों का उच्चारण-स्थान कहते हैं । सत्ताईस स्वर, तैंतीस व्यंजन और चार अयोगवाह – इसप्रकार कुल 64 वर्ण होते हैं । 'ज्ञेयो व्यंजनं त्वर्द्धमात्रकम् ।' अर्थात् व्यंजन को अर्द्धमात्रावाला कहा गया है । व्यंजन को भी वर्ग - स्थान दिया गया है । क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ट् ठ् ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न् प् फ् ब् भ् म् कवर्ग चवर्ग टवर्ग वर्ग पवर्ग अंतस्थ य् व् र् ल् ऊष्म श् ष् स् ह जितने भी व्यंजन हैं, उनमें अकार जुड़ा हुआ है। यह उच्चारण की सुविधा से है। वास्तव में इन्हें हलन्त— क् ख् ग् घ् ङ् आदि के रूप में उच्चरित किया जाता है। ध्वनि माधुर्य की दृष्टि से वर्ग के प्रथम एवं तृतीय वर्ण परुष / कठोर है। वर्गों के द्वितीय, चतुर्थ, पंचम वर्ण तथा य् र् ल् व् ह् मृदु-व्यंजन हैं। तथा वर्ग के अंतिम ङ् ञ् ण् न् म् —ये पाँच वर्ण ‘अनुनासिक' कहलाते हैं। प्रत्येक वर्ण का उच्चारण-स्थान भी अलग-अलग है । 'कवर्ग' तथा 'ह' का उच्चारण स्थान ‘कण्ठ' है। 'चवर्ग, य् और श्' का उच्चारण-स्थान 'तालु' है। 'टवर्ग, र और ष्' का उच्चारण-स्थान 'मूर्धा' है। 'तवर्ग, ल् और स्' का उच्चारण-स्थान 'दन्त' है। अक्षर विकल्प क्या है ? 'सोदिदियस्स विसओ सद्दों' शब्द – श्रोतेन्द्रिय का विषय है, वह तत - वितत आदि रूप है। जैसा कि ‘धवला' टीका में कथन किया गया कि अक्षर श्रुतज्ञान का विकल्प है। इनमें भी अक्षर और संयोगाक्षर दोनों का भी विशेष महत्त्व है। 64 अक्षरों से 64 श्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं और उनके आवरणों का प्रमाण भी 64 होता है । अपने स्वरूप और स्वभाव को नहीं छोड़ने के कारण अक्षर हानि और वृद्धि से रहित हैं । 1 प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर '2001 00 77

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