Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 91
________________ शान्तिसूरिकृत वृहदवृत्ति", आचार्य हरिभद्रकृत आवश्यकवृत्ति," प्रवचनसार” एवं भगवती आराधना” आदि ग्रंथों में भी मूलगुणों का उल्लेख किया गया है । 'भगवती सूत्र 24 एवं प्रकीर्णक”-साहित्य में अनगार के मूलगुण और उत्तरगुण के भेदों का उल्लेख किया है; किन्तु उनका नामोल्लेख वहाँ नहीं किया गया। बल्कि इन गुणों की आराधना में किसी प्रकार की हुई विराधना का प्रत्याख्यान करने की चर्चा की गई है। यहाँ यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि मूलगुणों की संख्या में जहाँ 27 गुणों का निर्देश 'समवायांग' में किया गया है, परवर्ती टीका - साहित्य में उनके नामों में पर्याप्त अंतर दिखाई देता है। 'उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति' एवं 'आवश्यकवृत्ति' में नामोल्लेख में एकरूपता है । अर्थात् जहाँ 'समवायांग' में क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार गुणों का त्याग तथा योगसत्य, ज्ञान, दर्शन व चारित्र-सम्पन्नता को स्वीकृत किया गया है, वही उक्त दोनों वृत्तियों में इन गुणों के स्थान पर रात्रिभोजन, त्याग, पृथ्वी - अप्-तेजसु-वायु-वनस्पति और त्रस इन षटकायिक जीवों का संयम और योग - युक्तता – इन आठ मूलगुणों को स्वीकृत किया गया है । इसीप्रकार 'मूलाचार' में निर्दिष्ट गुणों के नामों तथा 'समवायांग' और दोनों वृत्तियों में उल्लिखित मूलगुणों के नामों में एवं संख्या में भी अंतर दिखाई देता है । किन्तु परम्परा की दृष्टि से एक दो मूलगुण को छोड़कर शेष मूलगुणों को सूक्ष्मता से यदि अध्ययन करें, तो दोनों ग्रंथों में मान्य-गुण या तो मूलगुणों में समाहित हैं, या उत्तरगुणों में। दोनों ग्रंथों की तालिका में पाँच महाव्रतों एवं 5 इन्द्रिय - निग्रह का समान विधान है। समितियों को मूलगुणों में रखने पर चारों कषायों के वर्जन का समाहार हो जाता है। जबकि 'समवायांग' में चारों कषायों को मूलगुणों में रखा गया है । और समितियों का उत्तरगुणों में समावेश हो जाता है। 'केशलोंच' नामक मूलगुण 'काय - समाधारणता' (संकोचन - क्लेश) में निहित है । इसीप्रकार षडावश्यक मुनियों की दैनिक आचार संहिता ( क्रिया-कलाप ) के अंतर्गत मान्य है । और षटकायिक जीवों के प्रति संयम का विधान 'अहिंसा' नामक प्रथम मूलगुण में निहित कहा जा सकता है। ‘अष्ट प्रवचनमाता' 26 का उल्लेख जैनागमों में मिलता है। वे 5 समितियाँ एवं 3 गुप्तियाँ मिलकर ‘अष्ट-प्रवचनमाता' कही गई है । जिन्हें श्रमण अनिवार्यरूप से पालता है। महाव्रतों को सुरक्षित रखने तथा धर्म में एकनिष्ठ रहने हेतु 'प्रवचनमाता' का विशेष महत्त्व व योगदान है। आचेलक्य का उल्लेख साधु के 10 स्थितिकल्पों में सर्वप्रथम किया गया है। अर्धमागधी - आगम में स्थिति - भोजन का विधान नहीं है, क्योंकि आहार स्वस्थान पर लाकर करने का विधान है। इसका उल्लेख 'दशवैकालिक सूत्र' 28 में विस्तार से किया गया है I इसतरह दोनों परम्पराओं के ग्रंथों में जहाँ मूलगुणों के नामों में वैविध्य है, वहाँ मात्र शाब्दिक-भेद ही प्रधान है । यद्यपि मूलगुणों के अनन्तर पालन करने योग्य उत्तरगुणों में दृढ़ता इन्हीं मूलगुणों निमित्त से ही प्राप्त होती है। अतः सूक्ष्मता से इनका अध्ययन करने प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर 2001 0089

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