Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 88
________________ संदर्भो को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आगमेतर-साहित्य - उपांग व व्याख्या-साहित्य तथा परवर्ती-साहित्य में भी आचारधर्म से अनुप्राणित उन सूत्रों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ स्पष्ट किया गया है। मुक्ति का अव्याबाध-सुख प्राप्त करने का मूल आचार है। मोक्ष का साक्षात्- कारण आचार ही है। इसीतरह ज्ञान और दर्शन का सार भी 'आचार' कहा गया है। प्रवचन में चारित्रसंयमरूप आचारधर्म के फल की आराधना कही गयी है। इसप्रकार आचार की प्रमुखता के कारण ही आगम समग्र जैन-आचार की आधारशिला कहे गये हैं। श्रमण-जीवन की साधना का जो शब्द-चित्र 'आचारांग' (अर्धमागधी) व मूलाचार' (शौरसेनी) में उपलब्ध होता है, वह अनुपमेय व अनूठा है। जैनागम पर आचारात्मक दृष्टि ___श्वेताम्बर-जैन-आम्नाय के अनुसार महावीर की संकलित द्वादशांगी-वाणी में आचारधर्म का प्रतिपादन करनेवाला प्रधान-ग्रंथ है— 'आचारांग' । उसके प्रत्येक अध्ययन में श्रमण-धर्म के मूलगुणों से सम्बन्धित विवेचन दिया गया है। 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन में हिंसा का वर्जन कर साधु को अहिंसाधर्म में प्रतिष्ठित रहने का निर्देश दिया गया है। लोकविजय' नामक द्वितीय अध्ययन में कषायों को तप व संयम के माध्यम से जीतने का उल्लेख किया गया है। परीषहों को जीतकर अनुकूल-प्रतिकूल अवस्था में समताधर्म का दृढ़ता से पालन-करानेवाला शीतोष्णीय-अध्ययन है। शेष अध्ययनों में कर्ममल को नष्टकर साररूप मोक्ष का वर्णन किया गया है। द्वितीय-श्रुतस्कंध में भी श्रमणाचार का प्रतिपादन किया गया है। सूत्रकृतांग' के प्रथम-श्रुतस्कंध के प्रथम से लेकर दसवें-स्थान तक गृहस्थ और श्रमणों की आचार संहिता दी गई है। 'समवायांग' में भी महाव्रतों, समितियों, तप, परीषहों आदि मूल व उत्तर गुणों को सम्मिलितरूप में व्याख्यायित किया गया है। 'भगवतीसूत्र' तो एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें विश्व की प्रत्येक विद्या को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में निरूपित किया है। अत: श्रमण धर्म की सूक्ष्मता के साथ विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है। अनेक धर्मकथाओं के माध्यम से श्रमण-जीवन की आध्यात्मिक शुद्धि व विकास को ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र' में बहुत ही सुन्दर ढंग से दिया गया है। प्रश्नव्याकरण' में पांचों स्वर द्वारों द्वारा किया गया निरूपण महाव्रत की पृष्ठभूमि में सहयोगी है। साथ ही उन व्रतों की भावनाओं द्वारा भी श्रमणाचार-संहिता का विश्लेषण किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र' व 'दशवैकालिक' नामक मूलसूत्र श्रमणाचार के मेरुदण्ड है। इनके अध्ययन-अध्यापन के बिना श्रमण का आचारधर्म नहीं जाना जा सकता। शौरसेनी-आगम तथा उसकी परम्परा में लिखित साहित्य में भी श्रमणधर्म को पर्याप्त-विवेचन किया गया है। सिद्धान्त-ग्रन्थों के अतिरिक्त नियमासार, अष्टपाहुड, मूलाचार, भगवती-आराधनाकार आदि ग्रन्थों में भी श्रमण के आचारधर्म को व्याख्यांगित किया गया है। 0086 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001

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