Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 75
________________ हजार छह सौ बार श्वासोच्छ्वास की क्रिया करता है। यह क्रिया स्वत: होती है। जब वह श्वास लेता है, तब एकप्रकार की ध्वनि होती है। जब श्वास छोड़ता है, तब भी ध्वनि होती है। श्वास लेते समय 'स' की ध्वनि होती है और श्वास छोड़ते समय 'ह' की ध्वनि होती है। ये दोनों सहज ध्वनियाँ हैं, इन दोनों सहज ध्वनियों के आधार पर सोऽहम्' का विकास हुआ। सोऽहम्' भी मन्त्र-शक्ति से समन्वित है। इसे जपने की आवश्यकता नहीं होती, बिना जपे ही स्वत: इसका जाप हो जाता है, अत: इसे 'अजपा' भी कहा जाता है। 'शिव-स्वरोदय' में 'हकार' को शिवरूप और 'सकार' को शक्तिरूप माना गया है। 'हठयोग' के अनुसार हमारी नासिका के दक्षिण-रन्ध्र से सूर्य या दक्षिण-स्वर संचलित होता है तथा वाम-रन्ध्र से चन्द्र या वाम-स्वर संचलित होता है। अत: 'हकार' सूर्य या दक्षिणस्वर को और सकार' चन्द्र या वामस्वर का प्रतिनिधित्व करता है। इन दोनों का साम्य होने पर परमात्मभाव का विकास होता है। तन्त्रशास्त्र के अनुसार सम्पूर्ण वर्णमाला ही 'ओंकार' से उत्पन्न होती है। इसीलिए उसे 'मातृकास' कहा जाता है। यदि थोड़ी सूक्ष्मता से देखें और गहराई से विचार करें, तो 'सोऽहम्' और 'ओम्' में हमें अत्यधिक साम्य देखने को मिलता है। दोनों अद्वितीय मन्त्र-शक्ति से समन्वित हैं। दोनों हमारे अन्तर्जगत् एवं प्राणतत्त्व का संचालन करने में विशिष्ट-भूमिका का निर्वाह करते हैं। भाषाशास्त्रीय-दृष्टि और ध्वनि-विश्लेषण के अनुसार 'ओम्' और 'सोऽहम्' में कोई विशेष अन्तर नहीं है। सोऽहम्' से जब 'स' और 'ह' हट जाते हैं, तो 'ओम्' रह जाता है। 'ओम्' हमारी प्राणगत ध्वनि है। यह सहज और स्वाभाविकरूप से प्राण के साथ उच्चरित होती है। इसलिए इसका अत्यधिक मूल्य है। 'सोऽहम्' का महत्त्व अपनी ध्वनिगत विशेषता के कारण है। प्राणशक्ति के साथ उसका स्वाभाविक सम्बन्ध है, उसके साथ भावना का सम्बन्ध भी जुड़ा हुआ है, इसलिए उसका महत्त्व है। सोऽहम्' का अर्थ होता है— 'वह मैं हूँ' अथवा 'मैं वह हूँ' । अर्थात् जो परमशक्तिमान् परमात्मा है, वह मैं हूँ। इस भावनात्मक-सम्बन्ध के कारण 'सोऽहम्' एक बहुत शक्तिशाली-मंत्र के रूप में प्रतिष्ठापित हो गया। ध्वनिगतविशेषता ओर भावनात्मक-संवेदना के कारण महामंत्रों की कोटि में यह स्वत: प्रतिस्थापित हो गया। . इसप्रकार 'सोऽहम्' और 'ओम्' में मौलिकरूप से कोई अन्तर नहीं है। जो अन्तर दृष्टिगत है, वह मात्र शब्द और ध्वनिगत है। इस 'ओम्' का सतत जप करने से जपकर्ता की आत्मा के निर्मलस्वरूप से सीधा सम्पर्क होता है। 'ओम्' मंत्र में एक ऐसी दिव्यशक्ति निहित है, जो हमारे पूर्वोपार्जित-कर्मों का क्षय करके आत्मा को निर्मल एवं आध्यात्मिकजीवन को उन्नत बनाने के साथ-साथ निश्रेयस् (आत्मिक-कल्याण) और अभ्युदय (भौतिकसमुन्नति) दोनों का मार्ग प्रशस्त करती है। प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 00 73

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