Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 50
________________ रात्रि-निवास का स्वरूप और सिद्धत्व की खोज ____ साधुगण सदा हिंस्र जन्तुओं से चारों तरफ से घिरे भयंकर अन्धकारयुक्त गहन-वन में रात्रि में धर्म में अनुरक्त हुए पर्वत की गुफाओं में निवास करते हैं।' पर्यकासन, वीरासन या उत्कुटिकासन से बैठे हुए या एक करवट से लेटे हुए या खड़े हुए साधुगण रात्रि व्यतीत करते हैं। स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर हुए वे रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर में नहीं सोते और सूत्र व अर्थ का चिन्तवन का तकिया लगाकर एक करवट सोते हैं।' इसप्रकार उपाधि अकिंचन, परिशुद्ध-साधु सिद्धत्व की खोज करते रहते हैं। ऐसे साधु त्रियोगपूर्वक वंदनीय हैं। विविक्त शय्यासन तप और निर्दोष साधुआवास (वसतिका) । 'विविक्त-शय्यासन तप' का सम्बन्ध साधु-निवास (वसतिका) से है। जो प्रासुक हो, जिस वसतिका में राग तथा द्वेष के भावों को उत्पन्न करनेवाले मनोज्ञ-अमनोज्ञ, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द न पाये जायें, तथा जहाँ पर स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न उपस्थित न हो, और स्त्रियां, नपुंसकों असंयमियों और पशुओं का संचार न हो, उस वसतिका (स्थान) को विविक्त' कहते हैं। ऐसी वसतिका में रहने और सोने को विविक्त-शय्यासन तप' कहा है। ___ 'भगवती आराधना' की गाथा 235 (दिल्ली प्रकाशन) में वसतिका के बारे में स्पष्ट निर्देश है कि जिसप्रकार साधु छियालीस दोष-रहित वसतिका ग्रहण करते हैं। सोलह प्रकार के उद्गम-दोष, सोलह प्रकार के साधु के आश्रय से होनेवाले उत्पादन-दोष, दश प्रकार के एषणा-दोष तथा संयोजना, अप्रमाण, धूप और अंगार -ऐसे छियालीस दोष-रहित वसतिका में साधु प्रमाणकाल तक रहे।" अधःकर्म-वसतिका का दोष : साधुत्व-नाश __इसके अतिरिक्त साधुत्व को भ्रष्ट करनेवाला 'अध:कर्म' अर्थात् सबसे निम्न-कर्म का दोष है, जो सबसे महान् दोष है। जिन कार्यों से जीव-हिंसा होती है, उन्हें 'अध:कर्म' कहते हैं। इससे साधु के महाव्रतों का नाश होता है। साधुजन अध:कर्म-युक्त किसी भी कार्य/पदार्थ की मन-वचन-काय से अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व निवास-स्थान ग्रहण करते हैं। उक्त गाथा की टीका के अनुसार वृक्षों को काटकर लाना, ईटों को पकाना, कीचड़ करना, खंभे तैयार करना, अग्नि से लोहे को तपाना व घनों से कूटना, करौता से काठ चीरना, बसूले से छीलना, फरसे से छेदना इत्यादि नानाप्रकार की क्रियाओं से छह-काय के जीवों को पीड़ा देकर जो वसतिका स्वयं बनाई हो या बनवाई हो, तो वह 'अध:कर्म दोषवाली वसतिका' है। इसके सेवन से साधुपना नष्ट होता है।" निर्दोष-वसतिका में निवास से परिणामों में संक्लेश नहीं होने से चित्त में परमविशुद्धि होती है और आत्मस्वभाव में स्थिर होने से कर्मों के आस्रव का अभाव होकर संवर और निर्जरा होती है। 40 48 प्राकृतविद्या+ जुलाई-सितम्बर '2001

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