Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ प्राकृत-ग्रंथों में जिन-साधुओं का निवास और विहार-चर्या का स्वरूप -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल दिगम्बर-श्रमणचर्या अपने आप में अत्यन्त कठिन है तथा इसका विशद-प्ररूपण जैन-आगम-ग्रन्थों में एवं आचारमूलक-साहित्य में प्रचुर-परिमाण में प्राप्त होता है। जहाँ एक ओर यह प्ररूपण श्रमणचर्या की निस्पृहता एवं वैशिष्ट्य को बताता है, वहीं इसकी व्यावहारिक प्रयोगविधि का भी इससे सम्यक्-प्रतिबोध होता है। विश्वभर के दार्शनिक एवं आचारपरक-साहित्य में जैन-श्रमणचर्या का दार्शनिक एवं प्रायोगिक-पक्ष सदैव से आकर्षण एवं उत्सुकता जागृत करता रहा है। इसका संक्षिप्त, | संतुलित एवं प्रेरणास्पद प्रस्तुतीकरण प्रस्तुत आलेख में हुआ है। –सम्पादक | जिनेन्द्रदेव के शासन में 'मार्ग' और 'मार्गफल' ये दो कहे हैं। मग्गो खलु सम्मत्तं, मग्गफलं होदि णिव्वाणं' निश्चयरूप से 'सम्यक्त्व' मार्ग है, और उसका फल 'निर्वाण' है।' वीतरागता की प्राप्ति-हेतु जिनशासन में सम्यक्त्वधारी साधु-संघ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ' गृहत्याग कर श्रमणत्व वही स्वीकारता है, जिसके अंतरंग में मिथ्यात्व और क्रोधादि तीन कषाय-चौकड़ी का उपशम या क्षय हो गया हो, तथा जो बाह्य में सर्वपरिग्रह से रहित हो। सम्यक्त्वधारी-पुरुष ही चारित्रवान् होता है। आगम में 'अकसायं तु चरित्त' अर्थात् कषाय रहित होना चारित्र' कहा है। कषाय के वश में हुआ जीव असयंत होता है। जिस काल में उपशमभाव को प्राप्त होता है, उस काल में वह संयत होता है। आत्मशोधन की दृष्टि से साधुत्व एक अतिविशिष्टता है। वह आरोपित न होकर सहज होता है। जब किसी भव्य महानुभाव में आत्मकल्याण एवं आत्माराधन की भावना प्रबल होती है, तभी वह विषय-भोगों एवं संसार से विरक्त होकर परिवार की स्वीकृति-सहित दीक्षा-ग्रहण कर कषायों का उपशम/क्षय करने-हेतु साधुत्वपना अंगीकार करता है। वह देश-काल से प्रभावित हुए बिना परमार्थरूप से जिनेश्वरी-मार्ग अंगीकार कर कारणपरमात्मा के आश्रय से कार्य-परमात्मा होने हेतु उद्यत रहता है। इसीकारण ऐसे साधुजन परम-दिगम्बर, निस्पृही, निर्मोही, अपरिग्रही, वीतरागी हो भगवत्-स्वरूप पूज्य और नवधाभक्ति के पात्र एवं वंदनीय होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द उपनाम वट्टकेर ने 'मूलाचार' में तथा 0046 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116