Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ हैं। हेलेनिश्टिक (Hellenistic) युग के कुछ ग्रीक-दार्शनिकों का आत्मा-सम्बन्धी सिद्धान्त जैनदर्शन के सिद्धान्त से मिलता-जुलता है, जिसमें शरीर और आत्मा के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। सभी दार्शनिकों ने जैनदर्शन के आत्मा अथवा जीव के आकार के स्वरूप पर आश्चर्य प्रगट किया है कि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा हाथी के शरीर में उसके आकार जैसी बड़ी हो जाती है, और चींटी के शरीर में उसके आकार के समान छोटी हो जाती है। इस संबंध में जैनदर्शन में जो उदाहरण दिया गया है, यह बहुत सटीक है कि जैसे प्रकाश एक लालटेन में उसके आकार का हो जाता है और कमरे में फैलकर कमरे के आकार का हो जाता है। जैनदर्शन में आत्मा पूर्णज्ञान और अनन्तशक्ति से भरी हुई है।' आत्मा और कर्म ___ जैनदर्शन में आत्मा और कर्म के आपसी-सम्बन्धों पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। आत्मा की शक्तियाँ और ज्ञान कर्मों के कारण छिप जाते हैं। यही बात ग्रीक दार्शनिक एपिकटेटस (Epictetus) भी कहता है कि इस पृथ्वी पर हम सांसारिक शरीर में एक कैदी की तरह रहते हैं। इसी बात को जैनदर्शन में दिगम्बर-संतों के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है कि कर्मों के द्वारा हमारी आत्मा को पहले से ही ढंक दिया गया है, अत: अब साधक को वस्त्र पहिनकर आत्मा को पुनः ढंकने की आवश्यकता नहीं है।" जैनदर्शन में आत्मा को कर्मों से सर्वथा मुक्त करने की प्रक्रिया वर्णित है। अब आत्मा साधना और तपस्या के द्वारा कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाती है, तब वह मुक्त आत्मा' कहलाती है, और तब उसके ज्ञान को केवलज्ञान' कहा जाता है। भगवान् महावीर ने अपनी दीर्घ साधना के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त किया था। जैन-परम्परा में ऐसी मुक्त-आत्माओं, की लम्बी श्रृंखला है। प्राचीन ग्रीक-दार्शनिक इम्पेडोक्लेश (Empedocles) का जीवन एक जैन-संत के जीवन जैसा था। वह मांसाहार का त्यागी था और स्वयं को शुद्ध-आत्मावाला मानता था।" प्लेटो (Plato) का कर्म-सिद्धान्त और मुक्ति का सिद्धांत जैनदर्शन के सिद्धान्तों से मेल खाता है। जैनदर्शन के अनुसार कर्मों से मुक्त आत्मायें अपना चरम विकास करती हुई लोक के शिखर पर जाकर पूर्ण-सुख का अनुभव करती हुई सदैव के लिए ठहर जाती है। आत्मा के इस अनन्त-सुख के स्वरूप को पश्चिमी-दार्शनिकों ने भी स्वीकार किया है। ग्रीक-दर्शन में कहा गया है कि आत्मा शरीर में प्रवेश करने के पूर्व अनन्तज्ञान और सुख के स्वरूपवाली होती है। जैनधर्म का प्राथमिक उद्देश्य आत्मस्वरूप को प्रकट करना है, उसे कर्मों से मुक्त करना है। जैनधर्म आचारमूलक अधिक है। इसीलिए एक जैन दार्शनिक ने जैनधर्म को संक्षेप में व्यक्त करते हुए कहा है कि आत्मा में कर्मों के आगमन (आस्रव) संसार का कारण है, अत: कर्मों के आस्रव को रोकना (संवर) ही जैन आचार-संहिता का मूल है, और शेष शिक्षायें तो इसी भावना का विस्तार है।" 0066 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116