Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 70
________________ गतिमान वस्तुओं के इस जगत् में अनेकान्तवाद के द्वारा ही उनको समझा जा सकता है। हेराक्लीटस का सापेक्षवाद-सिद्धान्त जैनधर्म के अनेकान्तवाद के अधिक निकट है। वह उदाहरण देता है कि समुद्र का जल सबसे शुद्ध और सबसे अशुद्ध है। क्योंकि जल के प्राणियों के लिए वह पीने के योग्य और सुखदायी है, जबकि वही जल मनुष्य के लिए अपेय और हानिकारक है। वास्तव में परमात्मा के लिए उपयोगी और अच्छी हैं, जबकि मनुष्य ने उन वस्तुओं में से कुछ को सही और कुछ को गलत बताया है। आत्मसंयम और आचारमूलक धर्म ___ भारतीय विचारधाराओं में जैनदर्शन कठोर आत्मसंयम और आचार-मीमांसा को प्रतिपादित करनेवाला दर्शन है। उसमें पाँच प्रमुख-व्रतों का विधान गृहस्थों और साधुओं दोनों के लिये किया गया है। इन व्रतों में अहिंसा का विस्तार से प्रतिपादन जैनदर्शन में हुआ है और शाकाहार जैनधर्म के अनुयायियों की प्रमुख जीवनचर्या है। ग्रीक में पाईथागोरस (Pythagoras) के अनुयायी जैनधर्म की जीवन-पद्धति के अनुरूप अपना जीवन व्यतीत करते रहे हैं। जैनधर्म का साधु जीवन कठोर जीवनचर्या से जुड़ा हुआ है, जिसका प्रतिनिधित्व भगवान् महावीर और उनकी परम्परा के सन्त आज भी करते हैं। उपवास उनकी जीवनचर्या का प्रमुख अंग है। इसीप्रकार क्षमाभाव जैनधर्म का प्रमुख-गुण है। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी जैनधर्म को अहिंसा और उपवास के प्रमुख समर्थक रहे हैं। यद्यपि ग्रीकदर्शन में जैनदर्शन जैसी कठोर आचार-मीमांसा को तो स्वीकृति नहीं मिली, किन्तु आत्मसंयम के महत्त्व को वहाँ भी स्वीकार किया गया है।“पाईथोगोरस (Pythagoras) इसका प्रबल-समर्थक रहा है। उसका एक अनुभव व्यक्त करते हुए एक दार्शनिक ने कहा है कि जब पाईथागोरस ने एक व्यक्ति को कुत्ते को मारते हुए देखा, तो उसने उसे रोकते हुए कहा कि रुको, उसे मारो मत, यह कुत्ता भौंककर तुम्हें यह याद दिला रहा है कि तुम मैत्री की आवाज भूल गए हो। अपने भीतर वह मैत्री पैदा करो। पाईथागोरस का यह अनुभव हमें जैनधर्म की उस अहिंसा-भावना की याद दिलाता है, जिसमें किसी भी प्राणी को चोट न पहुँचाने को कहा गया है। __ जैनदर्शन के प्रमुख-सिद्धान्तों का सम्बन्ध ग्रीक-दर्शन के अतिरिक्त प्राचीन क्रिश्चियनचिंतकों के जीवनदर्शन से भी रहा है। प्राचीन समय में क्रिश्चियन-सन्त शरीर को आत्मविकास का शत्रु मानते रहे हैं। उनकी मान्यता थी कि जब शरीर अच्छी-वस्तु नहीं है, तो उसको कठोर-संयम द्वारा सजा दी जानी चाहिए। इसलिए कई सन्त गुफाओं, चट्टानों और पहाड़ों पर निवास करते करते थे। क्लेमेंट ऑफ एलिकजेण्ड्रिया (Clement of Alexandria) जंगलों में रहता था और उसने संसार नहीं बसाया था। वह केवल छ: रोटी के टुकड़े और सब्जियों से ही अपना जीवनयापन करता था। जब उससे पूछा गया कि तुम अपने शरीर को क्यों नष्ट कर रहे हो? तो उसका उत्तर था कि- क्योंकि इस शरीर ने मुझे (आत्मा) को नष्ट किया है। इसप्रकार आत्मसंयम का सिद्धान्त सम्पूर्ण विश्व में किसी 0068 प्राकृतविद्या+ जुलाई-सितम्बर '2001

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