Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 69
________________ अनेकान्तवाद : बहुआयामी दृष्टिकोण प्रो० हाजिमे नाकामुरा ने अपनी पुस्तक 'ए कम्पेरेटिव हिस्ट्री ऑफ आईडियाज' में प्रमुख-विचारधाराओं का विश्वदर्शनों के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक-अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें ईश्वर और मनुष्य, परमतत्त्व की अवधारणा, सुख की अवधारणा, आचारमूलक सिद्धान्त, अणुवाद, सापेक्षवाद और आधुनिक धार्मिक दृष्टिकोणों पर विस्तार से चर्चा की है। इसी प्रसंग में प्रो० नाकामुरा ने जैनतत्त्वदर्शन के प्रमुख केन्द्र-बिन्दु ‘अनेकान्तवाद' और 'आत्मसंयम' के कुछ पक्षों पर भी प्रकाश डाला है। __ प्रो० नाकामुरा का मानना है कि यदि हम सापेक्षवाद के महत्त्व को स्वीकार करते हैं और अपने क्रियाकलापों के औचित्य पर विचार करते हैं, तो हमें अनेकान्तवाद के बहुआयामी पक्ष को स्वीकारना होगा। इस सिद्धान्त को भारत में स्पष्टरूप से जैनधर्म के द्वारा प्रतिपादित किया गया है, और ग्रीक के कुछ विचारक भी इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। जैनधर्म में 'स्याद्वाद' के द्वारा 'अनेकान्तवाद' को व्यक्त किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक निष्कर्ष में अन्य दृष्टिकोणों को जोड़ने की संभावना बनी रहती है। इसको सप्तभंगीनय के नाम से जैनधर्म में व्यक्त किया गया है। संसार की प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय और ध्रुवता सदैव बने रहते हैं। ग्रीक-दार्शनिक डेमोक्रिटस (Democritus) की विचारधारा अनेकान्तवाद के अनुकूल थी। वह विचार करता है कि प्रत्येक वस्तु में हम यह अनुमान नहीं लगा पाते कि वह कैसे है', और कैसे नहीं है।" किन्तु इस समस्या को प्रमेयकमल मार्तण्ड' में तार्किक दृष्टि से समझाया गया है। इसप्रकार जैनधर्म ने इस सिद्धान्त के द्वारा संसार के स्वरूप को अनन्तरूप में व्यक्त किया है। मानवीय-ज्ञान उसके समक्ष सीमित है। इस सिद्धान्त के द्वारा जैन-चिन्तक गर्वपूर्वक यह भी घोषणा करते है कि संसार के विचारों के विविध संघर्ष को ‘अनेकान्तवाद' के द्वारा सुलझाया जा सकता है। ईसापूर्व 43 सन् के विद्वान् एनेसीडेमस (Aenesidemus) के द्वारा प्रतिपादित दस ट्रोपोइ (Teritropoi) के सिद्धान्त की तुलना 'अनेकान्तवाद' और 'सप्तभंगीनय' के साथ की जा सकती है। उन्होंने कहा है कि हवा का झोंका एक युवक को सुखदायी हो सकता है, किन्तु एक वृद्ध-व्यक्ति को वही झोंका कष्टदायक भी हो सकता है। संसार में होनेवाले परिवर्तन वातावरण और स्थिति के अनुसार अलग-अलग प्रभाव डालने वाले होते हैं। अत: प्रत्येक वस्तु बहुआयामी पक्षवाली है। इसीप्रकार एरिस्टीपस (Aristippus) के विचार भी जैनधर्म के अनेकान्त से मिलते-जुलते हैं। वह कहता है कि हम वस्तु को नहीं जानते, केवल उसके अच्छे-बुरे प्रभाव से ही परिचित होते हैं। जैनदर्शन में यह पर्याय को जानने की स्थिति है। इसीप्रकार ईसापूर्व 504-501 सन् के विचारक हेराक्लीटस (Heraclitus) प्रसिद्ध सापेक्षवादी विद्वान् हुए है, जो यह कहते हैं कि हम नदी में दो बार ताजे पानी का अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहते हैं? अत: निरन्तर प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 0067

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