Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 58
________________ लिपिशालासंदर्शनपरिवर्तो दशम: लिपि-विषयक अध्ययन-अनुसंधान एवं विकास की परंपरा इस देश में अतिप्राचीन एवं सुसमृद्ध रही है। जैन-बौद्ध-परम्पराओं में भी इस दिशा में पर्याप्त ध्यान दिया गया और उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। यहाँ पर बौद्ध-परम्परा के प्रमुख-ग्रंथ 'ललितविस्तर' के 'दशम परिवर्त' का मूलपाठ प्रकाशित-संस्करण के आधार पर यथावत् प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें चौंसठ लिपियों के नाम तो हैं ही, जिनमें 'ब्राह्मी' लिपि सर्वप्रथम है, साथ ही लिपिशाला में वर्ण-आकृतियों का परिचय कैसे दिया जाता था? – इसका भी प्रभावी निरूपण इसमें प्राप्त होता है। आशा है यह मूलपाठ भी लिपि-विषयक जिज्ञासुओं एवं अनुसन्धाताओं के लिए पर्याप्त उपयोगी सिद्ध हो सकेगा। यहाँ प्रस्तुत पाठ में जो संस्कृत की दृष्टि से विशेषरूप दृष्टिगोचर हैं, वे मूलपाठ का यथावत् प्रस्तुतीकरण के कारण हैं। , -सम्पादक इति हि भिक्षवः संवृद्धः कुमारः। तदा मांगल्यशतसहस्रैः लिपिशालामुपनीयते स्म दशभिर्दारकसहस्रैः परिवृत: पुरस्कृत:, दशभिश्च रथसहस्रैः खादनीयभोजनीयस्वादनीयपरिपूर्णेहिरण्यसुवर्णपरिपूर्णश्च । येन कपिलवस्तुनि महानगरे वीथिचत्वररथ्यान्तरापणमुखेष्वभ्यवकीर्यत स्म अभिविश्राम्यन्ते। अष्टाभिश्च तूर्यशतसहस्रैः प्रघुष्यमाणैर्महता च पुष्पवर्षेणाभिप्रवर्षता वितर्दिनिर्यहतोरणगवाक्षहर्नाकुटागारप्रसादतलेषु कन्याशतसहस्राणि सर्वालंकारभूषिता: स्थिता अभूवन् । बोधिसत्त्वं प्रेक्षमाणा: कुसुमानि च क्षिपन्ति स्म। अष्टौ च मरुत्कन्यासहस्राणि विगलितालंकाराभरणालंकृतानि रत्नभद्रंकरेण गृहीतानि मार्ग शोधयन्त्यो बोधिसत्त्वस्य पुरतो गच्छन्ति स्म। देवनागयक्षगन्धर्वासुरगरुडकिन्नरमहोरगाश्चार्धकायिका गगनतलात्पुष्पपट्टदामान्यभिप्रलम्बयन्ति स्म । सर्वे च शाक्यगणा: शुद्धोदनं राजानं पुरस्कृत्य बोधिसत्त्वस्य पुरतो गच्छन्ति स्म । अनेनैवंरूपेण व्यूहेन बोधिसत्त्वो लिपिशालामुपनीयते स्म।।। ___ समनन्तरप्रवेशितश्च बोधिसत्त्वो लिपिशालाम्। अथ विश्वामित्रो नाम दारकाचार्यो बोधिसत्त्वस्य श्रियं तेजश्चासहमानो धरणितले निविष्टोऽधोमुखः प्रपतति स्म । तं तथा प्रपतितं दृष्टा शुभांगो नाम तुषितकायिको देवपुत्रो दक्षिणेन करतलेन परिगृह्योत्थापयति स्म। उत्थाप्य च गगनतलस्थो राजानं शुद्धोदनं तं च महान्तं जनकायं गाथाभिरभ्यभाषात् शास्त्राणि यानि प्रचलन्ति मनुष्यलोके, संख्या लिपिश्च गणनापि च धातुतन्त्रम् । ये शिल्पयोग-पृथु-लौकिक-अप्रमेया:, तेष्वेषु शिक्षितु पुरा बहुकल्पकोट्य: ।। 1 ।। 00 56 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001

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