Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 65
________________ और 'आवर्ति जमा योजना' (Recurring Deposit Scheme) कहा जा सकता है। स्थायी बचत-योजना की समानता प्राचीनकाल में प्रचलित 'औपानिधिक' नामक योजना से कर सकते हैं। इसके उदाहरण के रूप में हम उन अभिलेखों को लेक सकते हैं जिनमें कुछ धन जमा करवाकर उसके ब्याज के रूप में कोई वस्तु (दूध, पूजा सामग्री आदि) सदैव लेते रहते थे। 'आवर्ति जमा योजना' के अन्तर्गत हम उन उदाहरणों को देख सकते हैं, जिनमें कुछ धन की इकाई प्रतिमास प्रतिवर्ष जमा करवाई जाती थी। इन दो योजनाओं के अतिरिक्त 'अग्रिम ऋण योजना' (Advance Loan Scheme) की झलक भी इन अभिलेखों में मिलती है। इनसे ज्ञात होता है कि सम्पत्ति जमा करने पर कुछ धन ऋण-स्वरूप मिल जाता था ओर जब यह धन जमा न करवाया जा सका, तो उसका भुगतान करने की इच्छा महाराजा चामराज औडेयर ने रहनदारों के समक्षक व्यक्त की। इसप्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षरूप से यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में बैंकिंग-प्रणाली ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पहले विद्यमान थी। आलोच्यकाल में बैंक से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की पद्धतियाँ विद्यमान थीं तथा जमा राशि पर लगभग 12% ब्याज दिया जाता था। सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. ए०ई० भाग 8. नासिक लेख। 2. जै०शि० सं० भाग एक, ले० सं० 93। 3. जै०शि० सं० भाग एक, ले० सं० 98। 4. वहीले० सं० 81। 5. —वही—ले० सं० 131। 6.—वही—ले० सं0 97। 7. —वही–ले० सं० 94। 8. —वही–ले० सं० 951 9.—वही—ले० सं० 412 । 10. —वही–ले० सं० 135। 11. —वही—ले० सं० 921 12. —वही–ले० सं० 495 । 13. —वही—ले० सं० 53, 51, 106, 129, 454,476 आदि। 14. —वही—ले० सं० 433 । 15. -वही—ले० सं० 841 16. -वही–ले० सं० 140। 17. -वही–ले० सं० 91 । 18. —वही—ले० सं० 94। 19. जै० शि० सँ० भाग एक, ले० सं० 95। 20. वही—ले० सं० 97। 21. वही–ले० सं० 128 1 22. वही–ले० सं० 91, 128, 136 आदि। 23. —वही— ले० सं० 84, 140। श्री ए० महादेवन् ने यह साफ-साफ माना है कि मोहन-जो-दड़ो के सांस्कृतिक विघटन के समय जैनों का जो व्यापारिक विस्तार था उससे भी जैन संस्कृति का एक स्पष्ट परिदृश्य हमारे सामने आता है। उनका कथन है कि उस समय जैन व्यापारियों का मोहन-जो-दड़ो के राष्ट्रकुल में एक प्रतिष्ठित स्थान था और उनकी साख दूर-दूर तक थी। उनकी हुडियाँ पूरे राष्ट्रकुल में सिरकती थीं। आज से सौ साल पहले एक देश में ऐसी इंडियों का काफी प्रचलन था। इनकी एक स्वतन्त्र लिपि थी। कुछ कूट-चिह्न भी थे, जो सीलें मोहन-जो-दड़ो में मिली हैं, संभव है उनमें से बहुतेरी जैन व्यापारियों से संबद्ध हों - महादेवन् की इस उपपत्ति पर भी विचार किया जाना चाहिये। -(हड़प्पा और श्रमण-संस्कृति से उद्धृत) * * प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 00 63

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