Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 26
________________ के अधीन था, जो विजित, अन्त और उपरान्त-क्षेत्रों के भेद से तीन वर्गों में विभक्त था। जो भाग सीधे केन्द्रीय-शासन के अन्तर्गत था, वह 'विजित' कहलाता था और अनेक चक्रों में विभाजित था। त्रिरत्न, चैत्यवृक्ष, दीक्षावृक्ष आदि जैन-सांस्कृतिक-प्रतीकों से युक्त कुछ सिक्के भी इस मौर्य-सम्राट के प्राप्त हुए हैं।"6 इन सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैनदीक्षा अंगीकार करने अपने गुरु अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण-भारत के कर्नाटक-प्रांत में 'श्रवणबेल्गुल' क्षेत्र में तपस्या की और समाधिपूर्वक देहत्याग किया। वह स्थित शिलालेख में ऐसा उल्लेख मिलता है “... जिनशासनायानवरत-भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त मुनिपतिचरणमुद्राङ्कित विशालशी..... ।।' इस शिलालेख में लिखा है कि चन्द्रगिरि पर्वत पर मुनिपति भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के चरणचिह्न अंकित किये गये। अन्य ग्रंथों से भी इस तथ्य के पोषक प्रमाण प्राप्त होते हैं भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः। अस्यैव योगिन: पार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ।। चन्द्रगुप्तमुनि: शीघ्र प्रथमो दशपूर्विणाम् । सर्वसंघाधिपो जातो विशाखाचार्यसंज्ञकः।। अनेन सह संघोऽपि समसतो गुरुवाक्यत:। दक्षिणापथदेशस्थ-पुन्नाटविषयं ययौ।।"8 अर्थ :- श्री भद्रबाहु आचार्य के वचन सुनकर सम्राट चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु के पास .. जैनेन्द्री दीक्षा लेकर तप किया। चन्द्रगुप्त शीघ्र दश-पूर्वपाठियों का अग्रेसर 'विशाखाचार्य' नाम पाकर मुनिसंघ का नायक बन गया। विशाखाचार्य का समस्त संघ गुरु-आदेश से (भद्रबाहु आचार्य की आज्ञा से) दक्षिणापथ-देशवर्ती पुन्नाट जनपद' को गया। आधुनिक विचारक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं "भारत सीमान्त से विदेशी-सत्ता को सर्वथा पराजित करके भारतीयता की रक्षा करनेवाले सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जैन-आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी से दीक्षा ग्रहण की थी। उनके पुत्र बिम्बसार थे। सम्राट अशोक उनके पौत्र थे। कुछ दिन जैन रहकर अशोक पीछे बौद्ध हो गये थे।" ऐतिहासिक प्रमाणों से विदित होता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की राज्याभिषेक-तिथि 26 फरवरी 387 ईसापूर्व थी, तथा ईसापूर्व 365 में इन्होंने जैनमुनि दीक्षा ली थी। इसप्रकार कुल 22 वर्षों तक राज्य करके ये दीक्षित हुए थे। ऐसे यशस्वी सम्राट् के मुनिदीक्षा अंगीकार करने एवं प्राकृतिक कारणों से गुरु-सान्निध्य में दक्षिणभारत जाने और वहाँ तपस्या करने के उपरान्त व्यापक धर्मप्रभावनापूर्वक 00 24 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001

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