Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ आम्रमय बन जाये। इसप्रकार भूमि - रूपी गौ की मात्रा नहीं आँकी जा सकती। ऐसे ही पशु-रूपी गौ दस वर्ष में एक से दस, दस से सौ और सौ से सहस्र बन जाती है । विद्या- रूपी गौ का उत्पादन तो अनन्त ही है। उससे भी असीम और अपार उस विश्वशक्ति का प्रजनन है, जिसे वेदों में और पुराणों में कामदुघा या कामधेनु, विश्वधात्री और विश्वरूपा गौ कहा गया है । जितना विश्व है, सब उसी से जन्म लेता है । वह सबकी माता है । स्वयं प्रजापति-पुरुष उसका पति है, जिसकी अनन्तवर्ष - शक्ति से यह विश्वात्मिका- कामधेनु शाश्वतकाल और देश में गर्भित होती है । इस गौ का ही एक नाम 'विराज' है । यह 'कामदुघा' है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो कामना है, वही इसका दुग्ध है। जो जैसा चाहता है, वैसा प्राप्त करता है । यही जीवन का नियम है। जिसकी जैसी श्रद्धा है, वही उसका रूप है। सब कामनाओं की समष्टि या सब इच्छाओं का समूह विश्व की इस बड़ी कामधेनु का दुग्ध है । उसी का भोग सब मानव प्राप्त करते हैं । जीवन का 'स्वस्तिक' इसके चार थनों पुष्ट होता है। से यह ऋषियों को ज्ञान, देवों को अमृत या प्राण, पितरों को सोम' और मनुष्यों को अन्न तृप्त करती है। वेदों में कहा है कि इस 'कामधेनु' या 'कामगवी' के सहस्ररूप हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति में निवास करते हैं । हमारे मन के विचार और प्राणों की क्रियायें या वृत्तियाँ उनमें से 999 गउयें हैं । वह जो अन्तिम एक गौ है, वही हृदय में स्थित ईश्वर-तत्त्व की एक रश्मि या ज्योति है, जो शतायु - जीवन का संचालन करती है । इस गौ को सब देवों की माता ‘अदिति' भी कहा गया है । अमृत का प्रसव करनेवाली यह स्वयं भी अमर है । इसे 'अघ्न्या' या 'अवध्य' कहा गया है। मनुष्य को चाहिये कि अपने ज्ञान और कर्म के सब व्यवहारों में इसप्रकार बरते कि जीवन में भरे हुए गौ-तत्त्व का कल्याण हो । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इस गौ के चार थन हैं। उनके दूध से मिलनेवाला पोषण ही जीवन का बल है। इस पुष्टि से तृप्त होनेवाला बछड़ा प्रत्येक व्यक्ति का मन है। जन्म लेकर कोई भी इस गौ का दुग्ध पिये बिना नहीं रह सकता। वही कुशल वत्स है, जो इस माता के चारों थनों के दुग्ध का लाभ उठाता है । उसे ही माता से मिलनेवाले वरदान का पूरा फल मिलता है। आदर्श सांस्कृतिक - जीवन वही है, जिसमें इस दुग्ध का पूरा पान किया अधूरा नहीं । - (साभार उद्धृत, भारतीय धर्म - मीमांसा, पृष्ठ 128-129) जाये, 1. सुधासूते सुधोत्पत्तिः । "वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती । विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभादज्ञानतां गताः । । ” - ( महाभारत, शांतिपर्व, मोक्षधर्म, 12/18/15, पूना संस्करण, 1954, पृ० 1025 ) ** प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर '2001 0041

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116