Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 32
________________ वेद - योग कषाय वेद्यत इति वेद: – (पृ०141) जो वेदा जाए, वह वेद है, जो अनुभव किया जाए वह वेद है। अष्टकर्मोदस्य वेदव्यपदेश: प्राप्नोति। -(पृ०141) आत्मप्रवृत्तेमैथुन-सम्मोहोत्पादो वेद:। -(पृ०142) आत्मप्रवृत्ते: सम्मोहोत्पादो वेदः । -(पृ०141) जो आत्म-प्रवृत्ति में सम्मोह उत्पन्न करता है, वह वेद' है। युज्यत इति योग: (पृ०140) जो संयोग को प्राप्त हो वह योग है। आत्मप्रवृत्ते: कर्मोदान-निबन्धनवीर्योत्पादो योगः। -(पृ०141). जो आत्म-प्रवृत्ति के निमित्त से कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति है, वह योग' है। आत्मप्रदेशानां संकोचविलोचो योगः। -(पृ0141) आत्मप्रदेशों का संकोच और विस्तार 'योग' है। जीवस्स पणिओगो जोगो। -(पृ०141) जीव के प्रणियोग अर्थात् परिस्पन्दन का नाम योग है। - कृषन्तीति कषाया: - (पृ०142) कृषण करना कषाय है। कस्सेदि जीवस्स (पृ०143) जो जीव को कषती है, वह 'कषाय' है। – यद् ग्रहणं तद्दर्शनम् – (पृ०148) जो ग्रहण होता है, वह दर्शन है। आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् (आलोकनवृत्ति दर्शन है।) आत्म-व्यापार का नाम 'दर्शन' है। प्रकाशवृत्तिकं दर्शनम् (पृ०150) ज्ञान प्रकाश की वृत्ति 'दर्शन' है। विषय और विषयी के योग्य देश में होने की पूर्वावस्था का नाम 'दर्शन' है। । ज्ञानस्योत्पादनं स्वरूपसंवेदनं दर्शनम् – (पृ०383-285) अविसेसिदण अत्थे दसणमिदि भण्णदे समए। -(पृ०150) समय/परमागम में स्वरूप के आभास को 'दर्शन' कहा गया। लिम्पतीति लेश्या – (पृ०150) जो लिम्पन करती है, वह लेश्या' है। आत्मप्रवृत्ति संश्लेषकरी लेश्या - (Fo150) जो आत्मप्रवृत्ति को संश्लेष करती है। कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है। लिंपदि अप्पीकीरदि, एदाए णियय-पुण्ण-पावं च । जीवो त्ति होदि लेस्सा, लेस्सा-गुण-जाणय-क्खादा।। - (प0151) जिससे पुण्य-पाप लिप्त होते हैं, आत्माधीन करते हैं, वह लेश्या दर्शन लेश्या है। सत् - सच्छब्दोऽस्ति शोभनवाचक: । -(पृ०160) 'सत्' शब्द शोभन या सुन्दर अर्थ का वाचक है। सत् सत्त्वमित्यर्थः - (पृ०160) 'सत्' का अर्थ सत्त्व है। अस्ति अस्तित्त्ववाचक: सत् - (10161) सत् अस्तित्ववाचक भी है। 40 30 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001

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