Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 35
________________ तिपिटकों' में वर्धमान महावीर के लिए निगण्ठनातपुत्त' शब्द आया है। जैनधर्म में चार प्रकार के कर्म-विजेता, त्रैलोक्यपूजित, त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ-पुरुषों की 'अर्हत्' संज्ञा है और अर्हत् द्वारा प्रचारित होने के कारण इस धर्म का नाम 'आहत' है। राग-द्वेष एवं कर्मरूपी शत्रुओं तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण इन वीतरागी-महापुरुषों को 'जिन' कहा जाता है। जिन' शब्द जि' धातु से 'नङ्' उणादि-प्रत्यय के द्वारा सिद्ध होता है। जयतीति जिन:' अर्थात् जीतनेवाला। 'जिन' द्वारा प्रवर्तित या प्रचारित होने के कारण इस धर्म का नाम ही 'जैन' हो गया। धर्मरूपी-तीर्थ के प्रवर्तक की संज्ञा तीर्थंकर' है। ___ जैनधर्म में ऋषभदेव से लेकर महावीर वर्धमान तक चौबीस तीर्थकर हुए हैं। इसके आदिप्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव हैं, जिन्हें आदिदेव, आदिनाथ, आदिब्रह्मा या वृषभदेव भी कहा जाता है। जैन-मान्यतानुसार ये 'अवसर्पिणी काल' के प्रथम तीर्थंकर' हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम विविध ज्ञान-विज्ञान और कलाओं की शिक्षा दी थी तथा सर्वप्रथम असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प - इन छह कलाओं का उपदेश देकर अच्छी समाज-व्यवस्था स्थापित की। ऋषभदेव का वेदों में उल्लेख मिलता है। श्रीमद्भागवत' (स्कन्ध 5, अ० 4-6) में तो इनका विस्तृत-जीवनवृत्त भी मिलता है। आप मनुवंशी-महीपति 'नाभिराज' तथा महाराज्ञी 'मरुदेवी' के पुत्र थे। ये ही प्रथम-तीर्थकर भगवान्-ऋषभदेव' कहलाये। इनके सौ पुत्र भी थे। इनमें प्रथम-चक्रवर्ती सम्राट् 'भरत' तथा द्वितीय आदिकेवली महान्-तपस्वी 'बाहुबली' बहुत-प्रसिद्ध महापुरुष हुए हैं। इन्हीं बाहुबली-भगवान् की विश्व-प्रसिद्ध अद्भुत-चमत्कारी 57 फुट की विशाल-मूर्ति कर्नाटक में बैंगलोर के निकट 'श्रवणबेल्गोल' नामक तीर्थस्थान के 'विन्ध्यगिरि पर्वत' पर एक हजार वर्षों से भी अधिक समय से स्थापित है। __जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठपत्र 'भरत' के नाम से इस देश का नामकरण 'भारतवर्ष' इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं अपितु कुछ विद्वान् भी सम्भवत: इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्डरूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन-नाम नाभिखण्ड या 'अजनाभवर्ष' भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता 'नाभिराज' के नाम से प्रसिद्ध था। ये नाभि और कोई नहीं, अपितु स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र ‘नाभि' थे। नाभिराज का एक नाम 'अजनाभ' भी था। 'स्कन्द पुराण' (1/2/37/55) में कहा है- “हिमाद्रि-जलधरेन्त भिखण्डमिति स्मृतम् ।" श्रीमद्भागवत में कहा है ___ अजनाभं नामैतद्वर्षभारतमिति यत् आरभ्य व्यपदिशन्ति" --(5/7/3) अर्थात् 'अजनाभवर्ष' ही आगे चलकर 'भारतवर्ष' इस संज्ञा से अभिहित हुआ। यद्यपि आधुनिक-इतिहास की पुस्तकों में 'भारतवर्ष' – इस नामकरण की अनेक किंवदंतियाँ मिलती हैं, किन्तु उनके विशेष शास्त्रीय-प्रमाण उपलब्ध नहीं होते, जबकि पूर्वोक्त ऋषभदेव के ज्येष्ठपुत्र 'भरत' के नाम से प्रसिद्धि के अनेक ऐतिहासिक-प्रमाण वैदिक-पुराणों प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 00 33

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