Book Title: Prakrit Vidya 2001 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 29
________________ 'छक्रवंडागमसुत्त' की 'धवला' टीका के प्रथम पुस्तक के अनेकार्थ-शब्द -डॉ० उदयचन्द्र जैन शौरसेनी के आद्य-आगम 'छक्खंण्डागमसुत्त' का जैन-साहित्य में अद्वितीय स्थान है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध यह ग्रंथ सूत्ररूप में सम्पूर्ण जैन-सिद्धान्त की जानकारी देता है। इसके सूत्रकार आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबली हैं। उनकी इस सूत्रशैली पर आचार्य वीरसेन ने जो व्याख्या प्रस्तुत की, वह अधिकांशत: 'शौरसेनी प्राकृत' में है, जिसमें व्याख्याकार ने आचार्य-परम्परा की रचनाओं के प्राकृत-उद्धरण देकर सूत्रों के रहस्य को प्रकट किया है। व्याख्याकार के विवेचन में जो धवलता आई है, जो प्रामाणिकता दी गई है, वह प्राकृत-मनीषियों को धवल बना रही है। पुरानी पाण्डुलिपियों के आधार पर जिन मनीषियों ने अपना उपयोग लगाया, उनका विधिवत् संशोधन किया, वह अपूर्व ही नहीं, अपितु दाँतों तले ऊँगली' दबाने जैसा कार्य है। यह कार्य लोहे के चने चबाने से कठिन है। शास्त्रीय पद्धति के पं० देवकीनन्दन, पं० हीरालाल शास्त्री, पं० फूलचन्द्र शास्त्री, पं० बालचन्द्र शास्त्री आदि ने क्रियात्मक-योग से प्राकृत के इस प्राचीन-श्रुत का सम्पादन ही नहीं किया, अपितु उसकी हिन्दी-व्याख्या देकर राष्ट्रभाषा-हिन्दी के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। डॉ० हीरालाल, डॉ० ए०एन० उपाध्ये, पं० कैलाशचंद्र शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल जी आदि की सूझबूझ के परिणाम का यह सुखद वृक्ष अपनी धवलता को सतत बिखेरता रहेगा। ___ आज इस षट्खण्डागम की 'धवला' टीका पर मनीषियों के माध्यम से वाचनायें भी विशेष महत्त्व स्थापित करने लगी हैं। वह जिस गति के साथ आगे बढ़ा या पं० जवाहरलाल भिण्डर, पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य के बाद तो मानो विराम ही लग गया है। इस धवला टीका को आज के शास्त्रियों के बीच पहुँचाने की परम-आवश्यकता है, इस पर गोष्ठी नहीं, अपितु प्रतिवर्ष कई वाचनाओं की आवश्यकता है। जो भी वाचना हो, उसमें वे सभी समाज में प्रतिष्ठित-शास्त्री तो बुलाए ही जायें; साथ ही ऐसे शास्त्रियों को भी आमंत्रित किया जाए जो अभी पूर्ण युवा हैं, जिनके पास साधन भी हैं, रोजी-रोटी भी है और जिनके पास नहीं, प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 10 27

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