Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 37
________________ ( ३१ ) दुष्टात्मा ने तुम्हारा युवराज पद ले लिया और तुम कोरे रह गए, तब तुम्हारे जीने से क्या ? इस से तो मरे ही अच्छे थे । पुत्रों ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि माताओ ! अब क्या करें जो आज्ञा हो । माताओं ने कहा कि जिस तरह बने उस पापी प्रद्युम्न के प्राण ले लेना चाहिये । पुत्र माताओं के अभिप्राय को समझ कर और प्रद्युम्न को समाप्त करने का दृढ़ विचार कर के प्रद्युम्न से जाकर मिले और उससे ऊपरी प्रीति करने लगे । वे सदा उसके मारने का घातविचारते रहते और उस के भोजन में विष मिला दिया करते थे, परंतु उसके पूर्व पुन्य के उदय से वह विष अमृत रूप हो जाता था । जब उन दुष्टों ने देखा कि हज़ारों उपाय करने पर भी प्रद्युम्न का कुछ बिगाड़ न हुआ, तब उन्हों ने एक दूसरा षड्यंत्र रचा। वे सब एक दिन उसे विजयार्ध शिखिर पर ले गए। जब सब ने गिरि शिखिर पर गोपुर देखा, तब बज्र - दंष्ट्र, जिसे सबने अग्रेसर बना रक्खा था, बोला, भाइयों ! जो कोई इस गोपुर के भीतर जायगा, उसे मनोवांछित लाभ होगा और वह पीछे कुशलता से लौट आयगा । ऐसा बृद्ध विद्याधरों का कथन है । यह कदापि सत्य नहीं हो सकता ; अतएव तुम यहीं ठहरो, मैं जाता हूं और शीघ्र लाभ लेकर आता हूं। इस पर पराक्रमी सरल चित्त प्रद्युम्न बोला, भाई

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