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इस वापिका में स्नान करता है, वह सुभग रूप सम्पन्न और जगत् का पति होता है । यह सुनते ही प्रद्युम्न बावड़ी में कूद पड़ा और निर्भय होकर पानी में मज्जन करने लगा । उसके दोनों हाथों से वापिका का जल बल पूर्वक ताड़ित होने से वापिका रक्षक देव बड़ा क्रोधित हुआ और इसके शब्दों को सुनकर बाहर निकला और कुमार के साथ लड़ने लगा । अंत में कुमार ने असुर को हरा दिया । तबतो वह चरणों में गिर पड़ा और एक मकर की ध्वजा कुमार को भेट करके बोला, महाराज मैं आपका किंकर हूं, आप मेरे स्वामी हो। उसी समय से संसार में प्रद्युम्न का मकरकेतु नाम प्रसिद्ध हुआ ।
प्रद्युम्न कुमार को लाभ लिए हुए आता देख कर भाइयों का मुंह पीला पड़ गया, तौभी वे ऊपरी प्रसन्नता प्रगट करके उसे एक जलते हुए अग्निकुंड के दिखलाने को लेगए । प्रद्युम्न निःशंक वहां चला गया और उसमें कूद पड़ा । जब कुमार ने उसे चहुँ ओर से दलमलित किया, तब वहां का देव क्रोध से लाल मुख करके प्रगट हुआ और दोनों में घोर युद्ध होने लगा । थोड़ी ही देर में देव हार गया और कामदेव के पैरों में पड़ कर बोला, महाराज ! आज से म आप का दास हो गया । लीजिए ये अग्नि कैं धोए हुए तथा सुवर्ण तंतु के बने हुए दो वस्त्र ग्रहण कीजिए । उनको लेकर कुमार बाहर निकल आया ।