Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 70
________________ ( ६४ ) * तेईसवां परिच्छेद थो ड़ी दूर चल कर प्रद्युम्न कुमार अपनी माता रुक्मणी के महल में पहुंचा। यहां उसने एक अति कुरूप क्षीण शरीर क्षुल्लक का रूप धारण कर लिया । रुक्मणी महाराणी जिन मंदिर के सामने कुशासन पर बैठी थी और बहुत सी स्त्रियां उन्हें घेरे हुए थीं । क्षुल्लक महाराज को आया देख कर वह जिन धर्मानुरागनी देवी नियम पूर्वक खड़ी होगई और महाराज के चरण कमल को नमस्कार कर के तिष्ठने के लिए प्रार्थना करने लगी । मूर्ख क्षुल्लकराज " दर्शन विशुद्धि दर्शन विशुद्धि " कह कर रुक्मणी के दिए हुए दिव्य सिंहासन पर बैठ गए । रुक्मणी भी आज्ञा पाकर सामने विनय पूर्वक बैठ गई और सम्यक्त सम्बंधी चर्चा करने लगी । थोड़ी देर धर्म चर्चा करके क्षुल्लक जी कहने लगे, हे देवी! मैंने पहिले जैसी तेरी प्रशंसा सुनी थी वैसी तू इस समय नहीं दीखती है । मैं कितना रास्ता चल कर आया और श्रम से थक गया, पर तू ने विवेक रहित होकर धर्म चर्चा करनी प्रारम्भ कर दी । मेरे खाने पीने की त निक चिंता न की, और तो क्या पैर धोने के लिए थोड़ासा गर्म जल भी न दिया । क्षुल्लक के बचन सुनकर रुक्मणी बड़ी

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