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(६६) - इसी समय श्री सीमंधर भगवान ने कुमार के आगमन के समय के सूचित करने वाले जो २ चिन्ह बतलाए थे वे सब प्रगट होगए । महल के आगे का सूखा अशोक वृक्ष फल फूलों से लद गया । सूखी हुई बावड़ी जल से भर गई, असमय बसंत ऋतु आगई । ये बातें रुक्मणी को बड़ी प्यारी मालूम हुई। उसके शरीर में रोमांच होआया । स्तनों से दूध झरने लगा, पर पुत्र नहीं आया । वह मन ही मन में अनेक संकल्प विकल्प करने लगी। क्या यह क्षुल्लक ही इस वेष में मेरा पुत्र है ? पर यह इतना कुरूप क्यों है ? मेरा पुत्र तो बड़ा रूपवान, बलवान होना चाहिए ? पर यह भी निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रूपवान तथा कुरूप होना पुण्य और पाप के प्रभाव पर निर्भर है । इस प्रकार अनेक विकल्प करती हुई रुक्मणी देवी ने क्षुल्लक महाराज से उन के माता, पितादि की कथा सुनने की इच्छा प्रगट की। क्षुल्लक जी ने यों ही गोलमाल उत्तर दे दिया कि श्रीकृष्ण नारायण तो हमारे पिता और आप हमारी माता हैं क्योंकि श्रावक, श्राविकाही यतियों के माता, पिता कहे जाते हैं। __यह वार्ता हो ही रही थी कि सत्यभामा की भेजी हुई दासियां नाई सहित रुक्मणी की चोटी लेने के लिए उसके घरके पास गली में गाती हुई आ पहुँचीं। उनके शब्द सुनते ही रुक्मणी का मुँह पीला पड़गया और वह आंसू बहाने लगी।