Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 53
________________ (४७) लगी, प्राणनाथ ! जिस दुष्ट पापी को पाल पोष करके में ने इतना बड़ा किया, जिस नीचको मैं ने आप से युवराज पद दिलवाया, हाय, आज उसी पापात्मा ने मेरा यौवन भूषित रूप देखकर काम के वश होकर मेरी यह कुचेष्टा की है आप के पुण्यके प्रभाव से, कुलदेवी के प्रसाद से और मेरे भाग्य से मेरे शीलकी रक्षा हुई है, नहीं तो हे नाथ, आज आपके इस चिर पवित्र कुल को दाग़ लगजाता और मेरा मरण होजाता। यह किसी पुण्य का उदय है । अबतो मैं जब उस नराधम का मस्तक रक्त में लथपथ हुआ पृथिवी पर लोटता हुआ देखूगी, तबही अपने जीवन को सच्चा समझूगी । कनकमाला के इन बचनों को सुनकर राजा ने तुरंत अपने ५०० पुत्रों को बुलाकर एकांत में कहा कि पुत्रो यह प्रद्युम्न मेरा पुत्र नहीं है । यह किसी नीच कुल में उत्पन्न हुआ है । मैं इसे बन में से लायाथा । अब जवान होकर यह तुम्हारी कीर्तिका घातक होगया है। उस रोज़ आप तो रथ में बैठकर आया और तुम सब पैदल आए, मुझे वह बात बहुत खटक रही है । इस लिए अब तुम जाओ और जिस तरह बने इसका शीघ्रही काम तमाम करदो मगर देखो किसी को खबर न होने पाए । पुत्र तो पहलेही से चाहते थे । अब पिता की आज्ञा पाकर तो जी में फूले न समाए ।

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