Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 58
________________ (५२) सबहाल जान कर अपने २ स्थान को चले गए । राजा कालसंवर भी चुपचाप मलीन मुख किए नगर में चला गया तथा ५०० कुमार भी गर्व रहित होकर महल में आगए । देखो पाप कभी छिपा नहीं रहता, कभी न कभी अवश्य खुल जाता है और इसका कैसा फल मिलता है । . * बीसवां परिच्छेद * FORGENESSरद जी के आग्रह करने पर कुमार चलने के लिए तैयार हुआ और माता पिता से आज्ञा secsc लेने के लिए महल में गया, जहां राजा कालसंवर और रानी कनकमाला दोनों दुःखी बैठे थे। कुमार ने माता पिता को नमस्कार करके कहा, हे महाभाग्य पिता, मुझ पापी से जो अनिष्ट कार्य हुए हैं उनके लिए मैं क्षमा का प्रार्थी हूं। इससे अधिक मेरी मूर्खता और क्या कही जासकती है कि मैं ने अपनी माता के लिए ( आपकी समझ में ) ऐसा भाव विचारा, परंतु मैं आप का किंकर हूं, मुझ पर दयाभाव करो। हे माता, तू भी क्षमा कर, अब मैं अपने पिता के घर मिलने जाता हूं। मुझे आप दोनों प्राज्ञा दीजिए, आपकी आज्ञा के बिना न जाऊंगा। आप मुझे भूल न जाएँ । सदैव कृपादृष्टि रक्खें । मैं शीघ्र लौटकर आऊंगा।

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