Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 59
________________ (५३) आपको मेरे विषय में कुछ भी अंतर नहीं मानना चाहिए। कुमार की ये बातें दोनों लज्जा के कारण नीचा मुख किए सुनते रहे परंतु कुछ भी उत्तर नहीं दिया । तो भी कुमार उन्हें नमस्कार करके तथा अपने भाइयों, परिवार के लोगों और मंत्रियों से मिलकर और मोह युक्त होकर नगर से बाहर निकला । नारद जी ने चलने के लिए एक अच्छा विमान तैयार किया, परंतु कुमार ने ज़ोर से उस पर अपने पैर रख दिए जिस से उसकी सारी संधियां टूट गई और उस में सैकड़ों छिद्र होगए । तब कुमार परिहास करने लगा, जिस से नारद जी बड़े लज्जित होकर बोले, हे वत्स, अब तुमही सुंदर मज़बूत विमान बनाओ, मेरी बृद्ध देह में चतुराई कहां से आई । तुम तो सब विद्याओं में कुशल हो, सम्पूर्ण विज्ञान के ज्ञाता हो । नारद जी के कहने से कुमार ने एक बड़ा सुंदर विस्मयकारी विमान शीघ्र बनादिया जो सर्व गुण और शोभा कर संयुक्त था। दोनों उसमें बैठ गए। कुमार ने उसे आकाश में चढ़ाया और धीरे २ चलाना शुरू किया । नारद जी ने कहा, हे वत्स, तेरी माता तुझे देखने के लिए बड़ी व्याकुल होरही है, शीघ्रता से विमान को चला। कुमार यह सुनकर अतिशय शीघ्र गति से चलाने लगा जिस से नारद जी बड़े आकुल व्याकुल हो गए, उनके बाल बिखर

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