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फिर वे उसे मेषाचार पर्वत पर लेगए। वहां भी पर्वत क रहने वाले देव के साथ युद्ध हुआ। अंत में देव ने हार कर और नम्रीभूत होकर कुमार का दासत्व स्वीकार कर लिया
और दो रनों के कुंडल उसकी भेट किए, जब भाइयों ने प्रद्युम्न को कुंडल लिए हुए आते देखा तो सब कुपित होकर बज्रदंष्ट्र से बोले कि अब हम इस दुष्टबलवाले प्रघम्न को मारे बिना न छोड़ेंगे | यह पापी जहां जाता है वहीं से महा लाभ लेकर आता है । बज्रदंष्ट्र ने उत्तर दिया, भ्रातृगण, निराश मत होओ, उत्साह भंग न करो। अभी तो सैंकड़ों उपाय इसके मारने के हैं। किसी न किसी जगह लोभ में आकर फंस जायगा।
इतने में प्रद्युम्न आगया । सब मायावी भ्राता उससे मिले और उसे विजयार्द्ध पर्वत पर लेगए । उस वन में एक
आम का वृक्ष खड़ा था। बज्रदंष्ट्र के कहने से प्रद्युम्न उसपर चढ़ गया और उसकी डालियों को ज़ोर से हिलाने लगा। तब वहां का देव बंदर का रूप धारण करके प्रगट हुआ और कुपित होकर कुमार को धुकारने लगा। बंदर के दुर्वचन सुनते ही कुमार ने उसको पकड़ लिया और उसकी पूंछ पकड़ कर गिराना ही चाहता था कि वह भयभीत होकर प्रगट होगया और बोला, मुझे छोड़ दो, मुझ पर दया करो । मैं