Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath Author(s): Hasmukhbhai Chudgar Publisher: Hasmukhbhai Chudgar View full book textPage 9
________________ शुभाशंसा आजकल बहुप्रचलित शब्दों में से – 'योग' शब्द एक है । 'योग' शब्द की अनेकों परिभाषाएँ हैं, और योग शब्द से अनेरे भिन्न-भिन्न साधना प्रणालिकाएं भी प्रसिद्ध है। मगर जैन परंपरा में योग शब्द की परिभाषा है - जो आत्मा से परमात्मा का संयोग सिद्ध बना दे, जो संसारी आत्मा को सिद्धावस्था तक पहुँचा दे और अशुद्ध आत्मा को पूर्ण विशुद्ध बना दे, विभाव स्थिति से दूर कर जो स्वभाव में स्थिरता, रमणता करवा दे, उस प्रक्रिया का नाम है योग । योग शब्द का अर्थ एवं योग प्रक्रियायों को सूचित करते हुए स्वयं योगबिन्दु' ग्रंथ के रचनाकार याकिनी महत्तरा सूनु साहित्यकार आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी महाराज साहेब ने कहा है - अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ ३१ ॥ जो वृत्तियां, प्रवृत्तियां मोक्ष यानि शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अचल, अक्षय, अपुनरावृत्ति रूप स्थान से आत्मा को जोड़ दे उसे योग जानें । वह योग पांच सोपानात्मक है - १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता, ५. वृत्तिसंक्षय । और ये पांचों योग उत्तरोत्तर एक से बढ़कर एक है । वृत्तिसंक्षय तो कर्मसंक्षय के लिए अंतिम सोपान है। इस पुस्तक में इसी योग का बहुत ही सुंदर विवरण, विवेचन है। रचनाकार पूज्य श्री जी के लिए यह विवरण भले ही बिन्दु स्वरूप होगी मगर यदि इस बिंदु को पी लेते हैं तो साधना के अमृतसिंधु का पान ही साबित होगा हर एक साध्य के लिए; ऐसा मैं मानता हूँ। इस योगबिन्दु ग्रंथ का हिंदी भाषा में अनुवाद करने का जो सत्प्रयास साध्वीश्री सुव्रताश्रीजी महाराज ने किया, वह बहुत ही अच्छा कार्य है, योगाभ्यासियों और योग के इच्छुक आराधकों, साधकों के लिए यह उचित देन हैं । मैं उन्हें आगे भी इसी प्रकार से श्रेष्ठ ग्रंथों के अनुवाद के लिए रत देखना, सुनना चाहता हूँ । इस कार्य के लिए मेरी ओर से शुभाशंसा ! विजय धर्मधुरंधर सूरिPage Navigation
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