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(१२) क्षेत्रुजा गढ ना वासी रे, मुजरो मानजो रे सेवक नी सुणी वातो रे, दिल मां घारजो रे प्रभु मैं दीठो तुम देदार, आज मुने उपन्यो हर्ष अपार, साहिबानी सेवा रे भव दुःख भांजसे रे ॥१॥ एक अरज अमारी रे, दिलमा घारजो रे, चौरासी लाख फेरा रे, दूर निवारजो रे, प्रभु मने दुर्गति पडतो राख, दरिशण व्हेलुं रे दाख ॥२॥ साहिबानी दोलत सवाई रे सोरठ देशनी रे,बलिहारी हुं जाऊं रे तारा वेशनी रे, प्रभु तारू रूडं दीळुरूप, मोह्या सुर नर वृन्द ने भूप ।।३।। साहिबानी तीरथ को नहीं रे शत्रुजय सारिखं रे, प्रवचन देखी रे कीधुं मैं पारखं रे ऋषभ ने जोई जोई हरखे जेह,त्रिभुवन लीला पामे तेह ॥४॥साहिबानी . भवोभव मागु रे प्रभु तारी सेवना रे,भावठ न मांगे रे जगमा ते बिना रे. प्रभु मारा पूरो मनना कोड,अम कहे उदय रतन कर जोड़॥५॥साहिबान'
(१२१) शांति समता शुद्ध तारी, आदि जिन मने आपजी काल जुनी विषमतानी, ग्रंथी मारी गालजो ज्ञान भानु ज्ञान करथी, मिथ्यातम मारु हरी ज्ञान दर्शन चरण सम्यक्, मुकित पंथे वालजो शांति०॥१॥ पांच इन्द्रियना विषयचं, विषम विष टाली करी पुद्गलानंदी पणानी, वासना प्रभु टालजो शांति०॥२॥