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[ ८० ] अजुवाली; प्रभु पाम्या शिववधू लटकाली ॥सुण०॥६॥ साहेब अंक मुजरो मानी जे, निज सेवक उत्तम पद दीजे; रूप कीर्ति करे तुज जिवविजे ॥सुण॥७॥
(४) हम मगन भये प्रभु ध्यान में, बिसर गइ दुविधा तन मनकी, अचिरासुत गुन गान में हम०॥१॥ हरिहर ब्रह्म पुरंदर की ऋद्धि आवत नहि कोउ मान में; चिदानंद की मोज मची है, समता-रसके पान में हम०॥२॥ इतने दिन तूं नाहि पिछान्यो, मेरो जनम गयो सो अजान में अब तो अधिकारी होई बैठे, प्रभु गुन अखय खजान में
हम०॥३॥ गई दीनता सबही हमारी, प्रभु ! तुज समकित दान में; प्रभु गुन अनुभव रस के आगे, आवत नहि कोउ मान में हम ॥४॥ जिनही पाया तिनही छीपाया न कहे कोउके कान में; ताली लागी जब अनुभव की तब जाने कोऊ सान में ॥हम०॥५॥ प्रभु गुन अनुभव चंद्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में; वाचक जस कहे मोह महा अरि, जीत लीयो मेदान में हम०॥६॥
शांति जिनेश्वर साहिबारे, शांति तणा दातार; अंतरजामी छो माहरा रे, आतमना आधार ॥शांति ॥१॥ चित्त चाहे प्रभु चाकरी रे, मन चाहे मलवाने काज, नयन चाहे प्रभु नीरखवां रे, घो दरिसण महाराज ॥२॥ पलक न बिसरो मन थकी रे, जेम मोरा मन मेह; एक पखो केम राखीए रे, राज कपटनो नेह ॥३॥