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[ १४३ ] प्रभु सन्मुख बोलने की स्तुति देखी मूर्ति आदि जिननी नेत्र मारां ठरे छे, ने आ हैयुफरी फरी प्रभु ध्यान तारुं धरे छ; आत्मा मारो प्रभु तुज कने आपवा उल्लसे छे आपो एवं बल हृदयमां माहरी आश ए छ;
दीक्षा ग्रही प्रथम तीर्थ तमे ज स्थाप्यु, कई भव्थनु कठिन दुःख अनंत काप्यु एवा प्रभु प्रणभी मे प्रण ये तमोने; मेवा प्रभु शिवतणा अर्पो' अमोने;
छे प्रतिमा मनोहारिणी दुःख हरी श्री वीर जिणंदनी; भकतो ने छे सर्वदा सुख करी जाणे खीली चांदनी, आ प्रतिमाना गुण भाव धरीने जे माणसो गाय छे पामि सघला सुख ते जगतना मुक्ति भणी जाय छ
त्हाराथी न समर्थ अन्य दोननो उधारनारो प्रभु, म्हाराथी नहि अन्य पात्र जगमां जोतां जडे हे विभु, मुकित मंगल स्थान? तोय मुजने इच्छा न लक्ष्मीतणो, आपो सम्यग रत्न श्यामजीवने तो तृप्ति थासे धणी;