Book Title: Prachin Stavan Jyoti
Author(s): Divya Darshan Prakashan
Publisher: Divya Darshan Prakashan
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[ १०४ 1 परवश बहु दुःख सहन में करीयां, जप तप संयम नहिं आदरीयां हारी गयो छु हाम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥३॥ दर्शन ज्ञान चरण धन खोयुं, अधर्म करतां पाछौं न जोडे थयं न साचुं दाम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥४॥ अजर अमर अज वीर जिनेश्वर, कस्तुर विजय तणा भवभय हर जगे आशा विशराम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥५॥
(७) .. वीर जीनेश्वरने चरणे लामु, वीरपणुं मांगु रे; मिथ्या मोह तिमिर भय भांग्यु, जित नगारु वाग्यु रे; ॥ वीर०॥१॥ छऊमथ्य वीर्य लेश्या संगे अभिसंधिज मति अंगेरे, सूक्ष्म स्थुल क्रियाने रंगे, 'योगी थयो उमंगे रे, ॥बीर०॥२॥ असंख्य प्रदेशे वीर्य असंखे, योग असंखित कंखेरे; पुद्गल गण तेणे तेशुं विशेषे, यथाशक्ति मति लेखे रे; वीर०॥३॥ उत्कृष्ट वीरयने वेपे योग क्रिया नवी पेसे रे; योग तणी घ्र वताने लेशे, आतम शक्ति न खेसे रे; ॥वीर०॥४॥ काम वीर्यवशे जेम भोगी, तेम आतम थयो भोगी रे; शुरपणे आतम उपयोगो, थाय तेह अयोगी रे ॥वीर० ५ ॥ वीरपणुं आतम ठाणे, जाण्युं तुमची वाणे रे; ध्यान विनाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे वीर०॥६॥ आलंबन साधन जे त्यागे, पर परिणतिने भागे रे; अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, आनंदघन प्रभु जागे रे ॥वीर०॥७॥

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